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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन - द्वितीय उद्देशक
इस प्रकार जब वे स्त्रियाँ उक्त साधु की वशवर्तिता तथा चारित्रदुर्बलता जान लेती हैं, तब नाराज होकर अपना पैर उठाकर उसके सिर पर लात दे मारती हैं । स्त्रीमोहित मूढ़ साधक उन कुपित स्त्रियों की मार भी हँसकर सह लेता है, यह काम की ही विडम्बना है ।
मूल पाठ
जइ केसिआ णं मए भिक्खू, णो विहरे सह णमित्थीए । साविह लुंचिस्सं, नन्नत्थ मए चरिज्जासि
॥३॥
संस्कृत छाया
यदि शिकया मया भिक्षो ! नो विहरे सह स्त्रिया | केशाहि लुञ्चिष्यामि, नान्यत्र मया चरे:
॥३॥
अन्वयार्थ
५५१
( जइ ) यदि (केसिया मए इत्थीए) मुझ केशों वाली स्त्री के साथ (भिक्खु ) हे साधो ! ( णो विहरे) विहार — रमण नहीं करोगे, तो ( इह ) मैं यहीं इसी जगह (केसाणं लुंचिस्तं) केशों को नोंच डालूंगी । (मए नन्नत्थ चरेज्जासि ) मेरे सिवाय किसी दूसरी जगह विचरण मत करना ।
भावार्थ
कामुक महिला कहती है- हे साधुवर ! यदि तुम मुझ केशों वाली नारी के साथ रमण करने में लज्जित होते हो तो मैं इसी जगह अभी इन केशों को उखाड़ फैंकूँगी, परन्तु शर्त यह है कि तुम मुझे छोड़कर अन्यत्र कहीं विहरण नहीं करोगे ।
व्याख्या
कामुक स्त्री द्वारा साधु को वचनबद्ध करने का तरीका इस गाथा में यह बताया गया है कि कामुक कामिनी साधु को किस प्रकार
अनुनय- - विनय का झूठा प्रदर्शन करके अपने साथ विहरण करने के लिए मनाती है। और अपने साथ रहने के लिए वचनबद्ध कर लेती है - 'जइ केसिआ ण मए
'चरिज्जासि ।'
यहाँ 'केसिआ' विशेषण से साधु को मोहित करने का कामुक स्त्रियों का ढंग बताया है । स्त्रियों के सिर के बाल पुरुष को सहसा मोहित और आकर्षित कर लेते हैं । अतः केशिका ( केशवाली ) कामुक स्त्री अपने केशों की लटें दिखलाकर साधु से कहती हैं - अगर मेरे ये लम्बे-लम्बे काले कजरारे बाल तुम्हें नहीं सुहाते हैं और तुम मेरे साथ रमण करने में लज्जित होते हो तो लो, मैं अभी इसी जगह इन केशों को नोंच डालती हूँ, फिर दूसरे आभूषणों की तो बात ही क्या है ? यहाँ केशों का लुंचन तो उपलक्षण मात्र है, कामिनी साधु को वचनबद्ध करने के लिए कहती है
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