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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन---प्रथम उद्देशक
५३६ (तम्हा) इसलिए (बहुमायाओ इत्थीओ णच्चा) स्त्रियों को अतिमाया वाली जान कर (भिक्खू ण सद्दह) साधु उन पर विश्वास न करे।
भावार्थ स्त्रियाँ मन में कुछ और विचार करती हैं, एवं वाणी से कुछ और प्रगट करती हैं तथा कर्म से कुछ और ही करती हैं। इसलिए साधु स्त्रियों को अत्यन्त मायाविनी जानकर उन पर भरोसा न करे ।
व्याख्या
स्त्रियों के मन, वचन, कर्म से विभिन्न रूप इस गाथा में शास्त्रकार स्त्री-स्वभाव का चित्रण करते हैं.-'अन्नं मणेण... इत्थीओ णच्चा ।' तात्पर्य यह है कि स्त्रियाँ पाताल के उदर के समान अति गम्भीर होती हैं, वे मन से कुछ और ही विचार करती हैं, तथा सुनने में मधुर प्रतीत होने वाले, किन्तु परिणाम में भयंकर अपनी वाणी द्वारा भाषण और ही तरह का करती हैं, और उसके कर्म का रूप इन दोनों से भी न्यारा है। साधु यह निश्चित समझ ले कि स्त्रियाँ माया करने में अति निपुण होती हैं, उनका कोई भरोसा नहीं है। अतः उनकी माया से अपनी आत्मा को लिप्त न होने दे।
इस सम्बन्ध में वृत्तिकार एक कथा देते हैं । एक युवक था -दत्तावैशिक । उसे ठगने के लिए एक वेश्या ने अनेक उपाय किये । परन्तु उन्होंने मन से उसकी कामना नहीं की। उसे दृढ़ देखकर वेश्या ने कहा-मैं दुर्भाग्यरूपी कलंक से कलंकित हूँ, अब मुझे जीने से क्या प्रयोजन है । मुझे आपने छोड़ दिया है, अतः मैं अब अग्नि में प्रवेश करके जल मरूंगी। यह सुनकर दत्तावैशिक ने कहा"स्त्रियाँ माया करके अग्नि में भी प्रवेश कर सकती हैं।" इस पर उस वेश्या ने सुरंग के पूर्व द्वार के पास लकड़ियों का ढेर इकट्ठा करके उसे जला दिया और सुरंग मार्ग से अपने घर चली आई । इसके बाद दत्तावैशिक ने कहा-"स्त्रियों के लिए ऐसी माया करना तो बाएँ हाथ का खेल है।" वह ऐसा कह रहे थे कि उन्हें विश्वास दिलाने के लिए धर्तों ने उन्हें चिता पर फेंक दिया। इतने पर भी उन्होंने स्त्रियों पर विश्वास नहीं किया। इसी प्रकार अन्य साधकों को भी स्त्रियों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
मूल पाठ जवती समणं बूया विचित्तलंकारवत्थगाणि परिहित्ता। विरता चरिस्सहं रुक्खं, धम्ममाइक्ख णे भयंतारो ॥२५॥
संस्कृत छाया युवतिः श्रमणं ब्र यात् विचित्रालंकारवस्त्रकाणि परिधाय । विरता चरिष्याम्यहं रुक्ष, धर्ममाचक्ष्व नः भयत्रातः ॥२५।।
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