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सूत्रकृतांग सूत्र
____ अर्थात--जैसे दर्पण पर पड़ी हुई मुख की छाया दुर्ग्राह्य होती है, वैसे ही स्त्रियों का हृदय दुर्ग्राह्य (जल्दी से पकड़ में न आने वाला) होता है। स्त्रियों का अभिप्राय पर्वत के दुर्गम मार्ग के समान गहन होने के कारण सहसा विज्ञात नहीं होता। उनका चित्त कमलपत्र पर पड़े हुए जलबिन्दु के समान अति चंचल होता है, इसलिए वह एक जगह नहीं टिकता । नारियाँ क्या हैं ? ये विष के अंकुरों के साथ उत्पन्न हुई विषलता के समान विभिन्न दोषों से पालित-पोषित होती हैं।
वृत्तिकार ने किसी अनुभवी की गाथाओं भी इस सम्बन्ध में दी हैंसुठ्ठवि जियासु सुठुवि पियासु सुठुवि य लद्धपसरासु । अडईसु महिलियासु य वीसंभो नेव कायवो
॥१॥ उब्भेउ अंगुली सो पुरिसो, सयलंमि जीवलोयंमि ।। कामं तएण नारी जेण न पत्ताइं दुक्खाइं
॥२॥ अह एयाणं पगई सव्वस्स करेंति वेमणस्साइं तस्स ण करेंति णवरं जस्स अलं चेव कामेहि ॥३॥
अर्थात् - अच्छी तरह जीती हुई, अच्छी तरह प्रसन्न की हुई, अच्छी तरह परिचय की हुई अटवी और स्त्री का विश्वास नहीं करना चाहिए। क्या इस समग्र जीवलोक में कोई अंगुलि उठाकर कह सकता है, जिसने स्त्री की कामना करके दु:ख न पाया हो ? स्त्रियों का स्वभाव है कि वे सबका तिरस्कार करती हैं, केवल उसका तिरस्कार नहीं करती, जिसे स्त्री की कामना नहीं है ।
__ अत: अन्त में शास्त्रकार कहते हैं--'अब हम ऐसा नहीं करेंगी', इस प्रकार वचन द्वारा कहकर भी स्त्रियाँ कर्म द्वारा विपरीत आचरण करती जाती हैं । अथवा सामने स्वीकार करके भी शिक्षा (उपदेश) देने वाले का ही अपकार करती हैं। आगामी गाथा में स्वयं शास्त्रकार स्त्री-स्वभाव का परिचय देते हैं.-~
मूल पाठ अन्नं मणेण चितेंति वाया अन्नं च कम्मुणा अन्नं । तम्हा ण सद्दह भिक्खू, बहुमायाओ इत्थीओ णच्चा ॥२४॥
संस्कृत छाया अन्यन्मनसा चिन्तयन्ति, वाचा अन्यच्च कर्मणाऽन्यत् । तस्मान्न श्रद्दधीत भिक्षुः बहुमायाः स्त्रियोः ज्ञात्वा ॥२४॥
अन्वयार्थ (मणेण अन्नं चितेति) स्त्रियाँ मन से कुछ और सोचती हैं, (वाया अन्ने च) और वचन से और कहती हैं, तथा (कम्मुणा अन्नं) कर्म से और कुछ करती हैं।
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