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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन --- प्रथम उद्देशक
संस्कृत छाया
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श्रुतमेतदेवमेकेषां स्त्रीवेद इति हु स्वाख्यातम् एवमपि ता उक्त्वाऽपि, अथवा कर्मणा अपकुर्वन्ति ||२३|| अन्वयार्थ
( एवं एवं सुतं ) हमने यह सुना है कि ऐसा पाप ( स्त्रीसम्पर्क का कुकृत्य ) बहुत बुरा होता है, ( एगेसि सुयवखायं) कुछ लोगों ने यह ठीक ही कहा है कि ( इत्थवेदेति हु) वैशिक कामशास्त्र ( स्त्री - वेद ) का भी यह कथन है कि ( ता एवं पि दत्तावि कम्णा अवकरेंति) अब पुन: मैं ऐसा नहीं करूँगी, यह कहकर भी स्त्रियाँ ( कामुक नारियाँ) पुनः कर्म से अपकार्य करती हैं ।
भावार्थ
यह हमने सुना है कि ऐसा पाप (स्त्रीसंसक्ति का दुष्कार्य ) बहुत ही बुरा है तथा कोई ऐसा ठीक ही कहते भी हैं और वैशिक कामशास्त्र (स्त्रीस्वभाव निरूपक वेद ) का भी यह कथन है कि स्त्रियाँ पुनः पापकर्म न करने का वचन देकर भी कर्म से अपकर्म करती जाती हैं ।
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व्याख्या
श्रुति, युक्ति और अनुभूति से काम बुरा, किन्तु दुस्त्याज्य शास्त्रकार केवल अपनी बात न कहकर अन्य कामशास्त्र आदि से तथा युक्ति और अनुभूति से यह प्रमाणित करते हैं कि हमने सुना है तथा वैशिक कामशास्त्र में भी कथन है और कुछ लोगों ने युक्ति से भी सिद्ध कर दिया है कि स्त्री के साथ संसर्ग बुरा है, किन्तु स्त्रियाँ ऐसा कहकर भी कि अब हम अपने साथ संसर्ग नहीं होने देंगी, फिर भी पुन: इस अपकर्म को करती रहती हैं ।
यह बात शास्त्रकार कहते हैं— सुयमेयमेवेगे स 'कम्मुणा अवकरेंति' । अर्थात् पूर्व गाथाओं में जो कहा गया है, वह सब हमने गुरुपरम्परा से, लोकश्रुतिपरम्परा से तथा किन्हीं अनुभवी सज्जनों से सुना है कि स्त्रीसंसर्ग निन्दनीय है । क्योंकि स्त्री का चित्त दुर्विज्ञेय, स्वभाव चंचल और उनका सेवन कठिन होता है । उनके साथ सम्पर्क का नतीजा बहुत बुरा होता है । कई तो बहुत ही अदूरदर्शिनी और तुच्छ स्वभाव की होती हैं । उनमें अभिमान बहुत अधिक होता है । इस प्रकार कोई कहते हैं । यह बात लौकिक श्रुति परम्परा से तथा पुरानी आख्यायिकाओं से भी ज्ञात होती है । स्त्रियों के स्वभाव और उनके साथ संसर्ग का फल बताने वाले वैशिक कामशास्त्र को 'स्त्री - वेद' कहते हैं । इसमें भी कहा है
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दुर्ग्राह्यं हृदयं यथैव वदनं यद्दर्पणान्तर्गतम्, भावः पर्वतमार्ग दुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते । चित्तं पुष्करपत्रतोयतरलं नंकत्र सन्तिष्ठते, नार्यो नाम विषांकुरंरिव लता दोषैः समं वर्धिताः ॥
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