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सूत्रकृतांग सूत्र
अन्वयार्थ (जुवती) कोई जवान स्त्री (विचित्तलंकारवत्थगाणि) विचित्र आभूषण और वस्त्र (परिहित्ता) पहनकर (समणं बूया) साधु से कहे कि (अहं विरताचरिस्स रुक्ख) मैं गृहबन्धन से विरत होकर संयम पालन करूंगी (भयंतारो) हे भयत्राता साधो ! (णे धम्ममाइक्ख) आप मुझे धर्म के सम्बन्ध में उपदेश दें, कहें।
भावार्थ कोई युवती नारी विचित्र अलंकार और वस्त्र पहनकर साधु से कहे कि मैं विरक्त होकर संयम का पालन करूंगी, इसलिए आप मुझे घर्मोपदेश दीजिए।
व्याख्या नारी : साध्वी बनने के बहाने साधु को ठगने वाली
कोई नवयौवना नारी वस्त्रालंकारों से सुसज्ज होकर साधु से कहे कि "मुनिवर ! मैं अब इस गृहबन्धन से विरक्त हो चुकी हूँ। मेरा पति मुझे पसन्द नहीं है, या वह मेरे अनुकूल नहीं है, उसने मुझे छोड़ दिया है अतः मैं तो अब संयम का पालन करूंगी। कहीं-कहीं 'रुक्खं' के बदले 'मोणं' शब्द है, वहाँ भी मौन (मुनि का भाव-मुनित्व) का अर्थ संयम ही होता है। अतः हे भय से रक्षक साधो ! मुझे आप धर्म सुनाइए, ताकि मैं इस दुःख की भागिनी न बनूं।"
__ इस प्रकार धर्मध्वजी बनकर महिलाएँ साधु को अपने चक्कर में फंसा लेती हैं।
अगली गाथा में बताया है कि इससे भी आगे बढ़कर वे और भी विश्वस्त वेष धरकर साधु के समक्ष आती है -
मूल पाठ अदु साविया पवाएणं, अहमंसि साहम्मिणी य समणाणं। जतुकुंभे जहा उवज्जोई, संवासे विदू विसीएज्जा ॥२६॥
संस्कृत छाया अथ श्राविकाप्रवादेन, अहमस्मि सामिणी श्रमणानाम् । जतुकुम्भो यथा उपज्योति, संवासे विद्वान् विषीदेत ॥२६।।
अन्वयार्थ (अदु) इसके पश्चात् (साविया पवाएणं) श्राविका होने के बहाने से स्त्री साधु के निकट आकर कहती है - (अहमंसि साहम्मिणी समणाणं) मैं श्रमणों की सामिणी हूँ, यह कहकर भी वह साधुओं के पास आती है । (जहा उवज्जोइ जतुकुंभे) जैसे आग के पास लाख का घड़ा जल जाता है। इसी तरह (विदू) विद्वान् पुरुष भी (संवासे) स्त्री संसर्ग से शिथिलाचारी हो जाते हैं।
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