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________________ प्रथम श्रु तस्कन्ध : उपोद्घात धर्म, समाधिमार्ग, समवसरण, याथातथ्य, ग्रन्थ, यमातीत, गाथा, पुण्डरीक, क्रियास्थान, आहारपरिज्ञा, प्रत्याख्यान-क्रिया, अनगारसूत्र, आर्द्र कीय और नालंदीय ।' समय अध्ययन में स्वसमय, परसमय का निरूपण करते हुए पंचभूतवादी, अद्वतवादी, तज्जीवतच्छरीरवादी, पुण्य-पाप-अकर्तावादी, पंचभूतात्मषष्ठवादी, क्रियाफल में अविश्वासी आदि मतवादियों के सिद्धान्तों का विवेचन किया गया है तथा नियतिवाद, अज्ञानवाद, जगत्कर्तृत्ववाद और लोकवाद का निरसन किया है। 'वैतालीय अध्ययन में शरीर की अनित्यता, उपसर्गसहन, कामपरित्याग और अशरणत्व आदि का प्ररूपण है । उपसर्गपरिज्ञा अध्ययन में श्रमणधर्म के पालन करते समय उपस्थित होने वाले विभिन्न उपसर्गों का सांगोपांग विवेचन है । स्त्रीपरिज्ञा अध्ययन में बताया है कि साधुओं के सामने कैसे-कैसे स्त्रीजन्य-उपसर्ग आते हैं ? उस समय साधु को कैसे सावधान और अपने ब्रह्मचर्य में स्थिर रहने की आवश्यकता है ? नरकविभक्ति १. अचेलक (दिगम्बर) परम्परा में भी सूत्रकृतांग के २३ अध्ययन मान्य हैं । इन नामों व श्वेताम्बर परम्परा के टीका ग्रन्थ आवश्यकवृत्ति में उपलब्ध नामों में थोड़ा-सा अन्तर है । प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयो नामक पुस्तक में तेवीसाएसुद्दयडज्झयणेसु ऐसा पाठ है, इस पाठ की प्रभाचन्द्रीय वृत्ति में इन २३ अध्ययनों के नाम भी गिनाये हैं । वे इस प्रकार हैं-१. समय २. वैतालीय ३. उपसर्ग, ४. स्त्रीपरिणाम ५. नरक, ६. वीरस्तुति, ७. कुशील परिभाषा ८. वीर्य, ६. धर्म, १०. अग्र, ११. मार्ग, १२. समवसरण, १३. त्रिकालग्रन्थहिद (?), १४. आत्मा, १५. तदित्थगाथा (?) १६. पुण्डरीक, १७. क्रियास्थान, १८. आहारक परिणाम, १६. प्रत्याख्यान, २०. अनगारगुणकीति, २१. श्रुत, २२. अर्थ, २३. नालंदा। ० राजवातिक के अनुसार सूत्रकृतांग में ज्ञान, विनय, कल्प्य तथा अकल्प्य का विवेचन है । छेदोपस्थापना, व्यवहारधर्म एवं क्रियाओं का प्ररूपण है। ० धवला के अनुसार सूत्रकृतांग का विषय निरूपण राजवातिक के समान है। इसमें स्वसमय एवं परसमय का विशेष उल्लेख है। • जयधवला में कहा गया है कि सूत्रकृतांग में स्वसमय-परसमय, स्त्रीपरिणाम, क्लीवता, अस्पृष्टता-मन की बातों की अस्पृष्टता, कामावेश, विभ्रम, आस्फालनसुख-स्त्रीसंग का सुख, पुंस्कामिता-पुरुषेच्छा आदि की चर्चा है । अंगपण्णत्ति में बताया है कि सूत्रकृतांग में ज्ञान, विनय, निर्विघ्न, अध्ययन, सर्वस त्क्रिया, प्रज्ञापना, सुकथा, कल्प्य, व्यवहार, धर्मक्रिया, छेदोपस्थापना, यतिसमय, परसमय, एवं क्रियाभेद का निरूपण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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