SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 576
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन -- प्रथम उद्देशक पाप छिपाये ना छिप छिपे तो मोटा भाग । " दाबी दूबी ना रहे, रुई - लपेटी आग 11 एक अनुभवी का कहना है - न य लोणं लोणिज्जइ ण य तुप्पिज्जइ घयं वा तेल्लं वा । for Heat वंचे अता अणुहूयकल्लाणो 11 अर्थात् - नमक का खारापन और तेल घी का चिकनापन छिपाया नहीं जा सकता, इसी तरह बुरा कर्म करने वाला अपनी आत्मा को धोखा नहीं दे सकता । ५३१ मूल पाठ सयं दुक्कडं च न वदति, आइठोवि पकत्थति बाले । वेयाणुवीइ मा कासी, चोइज्जतो गिलाइ से भुज्जो ॥१६॥ संस्कृत छाया स्वयं दुष्कृतं च न वदति, आदिष्टोऽपि प्रकत्थते बालः । वेदानुवीचि मा कार्षीः, चोद्यमानो ग्लायति स भूयः ||१६|| अन्वयार्थ ( बाले) अज्ञानी जीव ( सयं दुक्कडं ) अपने दुष्कृत - पाप को स्वयं ( न वर्दा) कहता है । ( आइट्ठोवि पकत्थति) जब दूसरा कोई ( गुरु आदि) उसे अपना पाप प्रकट करने का आदेश या प्रेरणा देता है, तब वह स्वयं अपनी बड़ाई करने लगता है । ( वेयाणुवीs मा कासी) 'तुम मैथुन - सेवन की इच्छा मत करो इस प्रकार आचार्य, गुरु आदि के द्वारा (भुज्जो) बार-बार ( चोइज्जतो) प्रेरित किया जाने पर भी (से) वह कुशील (गिलाइ ) ग्लान- नाराज या उदास हो जाता है । भावार्थ द्रव्यलिंगी अज्ञानी पुरुष अपने दुष्कर्म - पाप को स्वयं गुरु या आचार्य के सामने नहीं कहता । जब आचार्य, गुरु आदि कोई दूसरा हितैषी साधक उसे अपना पाप प्रकट करने का आदेश, उपदेश या निर्देश ( प्रेरणा ) करता है, तब वह स्वयं अपनी प्रशंसा के पुल बाँधने लगता है । 'तुम मैथुन की इच्छा भी मत करो' इस प्रकार आचार्य आदि द्वारा बार-बार उसे प्रेरणा दिये जाने पर वह मुर्झा जाता है, झेंप जाता है या नाराज हो जाता है । व्याख्या प्रच्छन्न पापी कुशलंगी की दुश्चेष्टाएँ यह मनोविज्ञानसम्मत बात है कि जगत् में कोई भी अपने आप को पापी नहीं कहलाना चाहता, चाहे वह कितना भी पापकर्म क्यों न करता हो ? प्रत्येक पुरुष में अपने आप को धर्मात्मा कहलाने की इच्छा रहती है और वह अपनी इस इच्छा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy