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सूत्रकृतांग सूत्र भावार्थ वह कुशील पुरुष सभा में अपने आपको शुद्ध बतलाता है, परन्तु एकान्त में छिपकर दुष्कर्म-पापकर्म करता है। परन्तु उसकी अंगचेष्टाओं, आचार-विचार तथा व्यवहारों को जानने वाले व्यक्ति उसे जान लेते हैं कि यह मायावी और महान् शठ है।
व्याख्या ये शुद्धता की दुहाई देने वाले प्रच्छना पापी !
जो व्यक्ति पूर्वगाथा में उक्त मिश्रमार्गी कुशील, जो वाणी से ही शूरवीर है, वह अशुद्ध एवं पाप दोषयुक्त होते हुए भी भरी सभा में अपने आप को पवित्र, शुद्ध, दूध का धोया, निर्दोष कहता है और डंके की चोट कहता है । इसी रहस्य का उद्घाटन शास्त्रकार करते हैं- 'सुद्ध रवति'.. महासढेऽयति' अर्थात् वह भरी सभा में जोर-शोर से गरजता हुआ कहता है-"मैं शुद्ध हूँ, पवित्र हूँ, मेरा जीवन निष्पाप है।" परन्तु उसके कारनामों का पता लगाया जाय तो आश्चर्य होगा कि उसकी शुद्धता की दुहाई वंचनामात्र है, छलावा है, धोखे की टट्टी है, क्योंकि वह छिप-छिपकर एकान्त में पापकर्म करता है, दोषों का सेवन करता है, अनाचार करता है, मिथ्याचार या दिखावटी आचार का पालन करता है। उसके काले कारनामों को जानने वाले या उसके सम्पर्क में आने वाले जानते हैं कि वह कितने गहरे पानी में है। वे उसकी अटपटी दिनचर्या से, उसके व्यवहार से, उसके आचार-विचारों से, उसकी अंगचेष्टाओं पर से यह भली-भाँति जान लेते हैं कि यह केवल वचन के गुब्बारे उछालता है, यह जितना और जो कुछ कहता है, आचरण में उतना ही दूर एवं विपरीत है । अन्य कोई नहीं तो सर्वज्ञ-सर्वदर्शी महापुरुष तो उसके दुष्कर्मों को जान लेते हैं । उस कुशील के अकर्तव्य या पापकर्म की कहानी उनसे तो जरा भी छिपी नहीं रह पाती । मोहान्ध पुरुष अँधेरे में छिपकर असद् अनुष्ठान करता है, और मन में सोचता है कि मेरे पापकर्म को कौन जानता है ? किसी को जरा भी पता नहीं लग सकता, मेरे कारनामों का। मेरे हथकंडे मैं ही जानता हूँ। परन्तु नीति कार कहते हैं
आकारैरिंगितर्गत्यां चेष्टया भाषणेन च ।
नेत्रवक्त्रविकारेण लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः ।। अर्थात-आकृति से, इशारों से, चाल-ढाल से, चेष्टा से, भाषण से, आँख और मुख के विकार से, किसी व्यक्ति के अन्तर्मन में छिपी हुई बात परिलक्षित हो जाती है।
साधारण मनोविज्ञान के अभ्यासियों या सतत सम्पर्क में रहने वालों से उस व्यक्ति से दुष्कर्म छिपे नही रह सकते । उसे जानने वाले जानते हैं। एक लौकिक उक्ति है
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