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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन–प्रथम उद्देशक
५२६ परन्तु वे द्रव्यसाधु ऐसा क्यों करते हैं ? इसका कारण यह है कि घरबार, कुटुम्बकबीला एवं धन-सम्पत्ति छोड़ देने के बाद भी मोह के उदयवश ने पुन: उसी चक्कर में पड़ते जाते हैं। स्त्रियों के संसर्ग, भक्त-भक्ताओं से अतिपरिचय, परिजनों से मोह सम्बन्ध आदि के कारण वे न तो पूरे साधु-जीवन के मौलिक आचार का पालन करते हैं, और न ही गृहस्थजीवन के आचार-पालक कहलाते हैं। वे ऐसे मध्यममार्ग को अपना लेते हैं, जो गृहस्थ और साधु दोनों के कुछ-कुछ आचारों का मिला-जुला रूप होता है । इसी बात को शास्वकार कहते हैं-'मिस्सीभावं पत्थुया य एगे।' अर्थात् वे साधु और गृहस्थ की मिश्रित अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। वे साधुवेश को ग्रहण करने से साधु और गृहस्थ के समान आचरण करने से गृहस्थ होते हैं । वे न तो एकान्त गृहस्थ ही हैं और न एकान्त साधु ही हैं । इतना होने के बावजूद भी वे अपने द्वारा स्वीकृत मार्ग को ही ध्र व अर्थात् मोक्ष या संयम का मार्ग कहते हैं।
और कहते हैं कि हमने जिस मध्यममार्ग का आचरण करना प्रारम्भ किया है, वही मार्ग सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि इस मार्ग से प्रवृत्ति करने के द्वारा प्रव्रज्या अच्छी तरह पाली जा सकती है।
'वाया वीरियं कुसीलाणं'--शास्त्रकार कहते हैं कि यह उन कुशीलों के वाणी का वीर्य-पराक्रम ही समझना चाहिए, उसके पीछे शास्त्र-सम्मत आचार का बल नहीं है। क्योंकि वे द्रव्यलिंगी पुरुष वचनमात्र से अपने को प्रवजित कहते हैं, परन्तु उनमें उत्तम संयमानुष्ठान का पराक्रम (वीर्य) नहीं हैं। उन्होंने तो एकमात्र वैषयिक सुख और तज्जनित सातागौरव में आसक्ति के कारण ही इस प्रकार का सुखसुविधापूर्ण मार्ग अपनाया है। अपने शिथिलाचार को छिपाने के लिए उन्होंने इस प्रकार का मिश्र मार्ग अंगीकार किया है।
मूल पाठ सुद्धं रवति परिसाए, अह रहस्संमि दुक्कडं करेति । जाणंति, य णं तहाविहा, माइल्ले महासढेऽयं ति ॥१८॥
___ संस्कृत छाया शुद्ध रौति परिषदि, अथ रहसि दुष्कृतं करोति । जानन्ति च तथाविदो, मायावी महाशठोऽयमिति ।।१८।।
अन्वयार्थ (परिसाए) वह कुशील पुरुष सभा में (सुद्ध रवति) अपने आप को शुद्ध कहता है, (अह रहस्संमि) परन्तु एकान्त में (दुक्कडं करेति) वह पाप करता है । (तहाविहा) ऐसे व्यक्ति की अङ्गचेष्टाओं, आचार-विचारों एवं व्यवहारों को जानने वाले पुरुष उन्हें (जाणंति) जान लेते हैं कि (माइल्ले महासढेऽयं ति) यह मायावी और महाधूर्त है।
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