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सूत्रकृतांग सूत्र
की पूर्ति के लिए गुप्तरूप से पाप करता है या कुशीलसेवन करता है, ताकि कोई उसे पापी न कह सके । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं - 'सयं दुक्कडं च न वदति' । अर्थात् कुशील पुरुष अपने किए हुए प्रच्छन्न पाप को किसी के पूछने या न पूछने पर भी स्वयं प्रगट नहीं करता कि मैंने अमुक दुष्कार्य किया है ।
प्रश्न होता है कि प्रच्छन्न पापी मायावी स्वयं तो कहता नहीं, मगर जो लोग उसके काले कारनामों को जानते हैं, जो उसके सम्पर्क में सतत रहकर उसकी दुश्चेष्टाओं से अनभिज्ञ नहीं हैं, उनके सामने भी वह कैसे छिपा सकता है ? इसके समाधान के लिए शास्त्रकार उसकी दुश्चेष्टाओं को व्यक्त करते हैं— 'आइट्ठोवि पकस्थति बाले' अर्थात् उसके प्रच्छन्न पापों के जानकार गुरु, आचार्य या कोई हितैषी उससे अपने पापों या दुष्कृत्यों को प्रकट करने या कहने के लिए आदेश या प्रेरणा देते हैं तो वह उनकी बात को ऊपर ही ऊपर उड़ा देता है, उनकी खरी-खरी बातों को सुनी-अनसुनी कर देता है । वह कहने लगता है - " कौन कहता है, मैंने अमुक दुष्कृत्य किया है ? कहने वाले झूठे हैं । भला मैं ऐसा खानदानी ( कुलीन) व्यक्ति ऐसा दुराचरण कर सकता हूँ ?" और फिर धृष्टतापूर्वक अपनी प्रशंसा के पुल बाँधने लगता है - "मैं जितने अपनी और दूसरों की भलाई के कार्य करता हूँ, शायद ही कोई करता हो । मेरे जैसा परोपकारी, धर्मवीर, पूजनीय पुरुष और कौन है ? मैंने कुछ ही वर्षों में अपने हजारों भक्त बनाए हैं। अगर मैं दुश्चरित्र होता तो मेरे इतने भक्त कैसे बन जाते ? मैं जगत् में कर्मयोगी हूँ, आदरणीय वन्दनीय बन गया हूँ, इसलिए कुछ ईर्ष्यालु लोग मुझसे ईर्ष्या करके मुझे इस प्रकार से बदनाम करके लोगों की दृष्टि में गिराना चाहते हैं । मेरी कीर्ति उनकी आँखों में खटकती है, इस - लिए वे मेरी निन्दा करके मुझे बदनाम करते हैं, मेरे विरुद्ध झूठा प्रचार करते हैं ।" 'वेयाणुवीs मा कासी' वेदानुवीचि में 'वेद' शब्द पुरुषवेद के उदय का द्योतक
है । उसके अनुकूल मैथुन की इच्छा वेदानुवीचि कहलाता है । इसके पश्चात् जब आचार्य या गुरु उसकी थोथी बातें तथा मनगढ़न्त विचार सुनते हैं तो खिन्न होकर उसे बार-बार प्रेरणा देते हैं कि " सौ बात की एक बात है, तुम मैथुन सेवन की मन से भी इच्छा न करो, उसे सदा के लिए मन-वचन-काया से तिलांजलि दे दो ।" इस प्रकार बार-बार कहासुनी करने पर वह अत्यन्त ग्लानि को प्राप्त हो जाता है । ग्लानि का अर्थ है - एकदम झेंप जाना, मुर्झा जाना, या मुँह पर हवाइयाँ उड़ने लग जाना, चेहरा फीका हो जाना । अथवा वह उस बात को सुनी-अनसुनी कर देता है । या वह उनकी बात सुनकर मर्मस्थान में विद्ध-सा या मर्माहत -सा खेदयुक्त होकर कहता है – “मुझ पर पाप की आशंका की जाती है, तब मुझे पापरहित होने से भी क्या लाभ ? क्योंकि निर्विष सर्प से भी लोग बहुत डरते हैं ।" इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं - 'चोइज्जतो'' ....से भुज्जो ।'
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