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सूत्रकृतांग सूत्र मित्रजनों या हितैषियों को (अप्पियं होति) दुःख उत्पन्न होता है। वे कहते हैं(सत्ता कामेहि गिद्धा) जैसे दूसरे प्राणी काम में आसक्त हैं, इसी तरह यह साधु भी है। (रक्खणपोसणे मणुस्सोसि) तथा वे कहते हैं कि तुम इसका भरण-पोषण भी करो, क्योंकि तुम इसके आदमी हो।
भावार्थ किसी स्त्री के साथ साधु को एकान्त स्थान में बैठे देखकर उस स्त्री के ज्ञातिजनों और मित्रजनों-स्नेहीजनों के चित्त में दुःख उत्पन्न होता है। वे कहते हैं कि जैसे दूसरे लोग काम में आसक्त होते हैं, इसी तरह यह साधू भी कामासक्त है । फिर वे रुष्ट होकर कहते हैं- 'तुम इसके आदमी हो तो इसका भरण-पोषण क्यों नहीं करते ?"
व्याख्या
एकान्त स्थान में स्त्री सम्पर्क के कारण शंका और प्रतिक्रिया
पूर्वगाथा में कन्या, पुत्रवधू आदि किसी भी स्त्री के साथ एकान्त में परिचयसंसर्ग करना वजित बताया गया था। उसी सन्दर्भ में इस गाथा में यह बताया गया है कि साधु को एकान्त स्थान में किसी स्त्री के पास बैठे देखकर उसके स्वजनों एवं स्नेहीजनों के मन में कैसी प्रतिक्रिया होती है ?
'अदु णाइणं.... 'मणस्सोऽसि आशय यह है कि किसी भी अकेली स्त्री के साथ एकान्त स्थान में बैठे हुए या वार्तालाप करते हुए और उस प्रकार की प्रवृत्ति बार-बार करने से उस स्त्री के परिवार वालों और स्नेहीजनों के हृदय में दुःख उत्पन्न होता है, उन्हें उस अकेली स्त्री का साधु के पास बैठना बहुत अखरता है, उन्हें बहुत बुरा लगता है । इसे वे अपनी जाति या कुल की बदनामी या कलंक समझते हैं । वे साधु के इस रवैये को देखकर अनेक प्रकार की शंका-कुशंकाएँ उसके सम्बन्ध में करते हैं कि यह साधु अपने ज्ञान-ध्यान, स्वाध्याय, या साधना की समस्त धर्माचरणरूप प्रवृत्तियों को छोड़कर जब देखो तब इस स्त्री के पास निर्लज्ज होकर बैठा रहता है, इसके मुंह की ओर ताकता रहता है। जैसे दूसरे लोग काम-भोग में आसक्त रहते हैं, वैसे ही यह साधु भी कामासक्त है। फिर उनमें और इसमें क्या अन्तर रहा ? कभीकभी वे इस साधु पर ताना भी कसते हैं
मुण्डं शिरो वदनमेतदनिष्ट गन्धम्, भिक्षाशनेन भरणं च हतोदरस्य । गात्र मलेन मलिनं गतसर्वशोभम्,
चित्र तथाऽपि मनसो मदनेऽस्ति वाञ्छा ।। अर्थात्---इस साधु का सिर तो मुडा हुआ है, इसके मुंह से बदबू आ रही
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