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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन-प्रथम उद्देशक
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धूयराहि-दुहिता या पुत्री का नाम है। चाहे अपनी पुत्री ही क्यों न हों, उसके साथ भी कहीं एकान्त में बैठने, उठने, विहार करने या वार्तालाप करने वगैरह के रूप में संसर्ग या परिचय करना उचित नहीं है । सुण्हाहि - स्नुषा-पुत्रवधू को कहते हैं, उसके साथ भी एकान्त स्थान आदि में न बैठे। धातीहिं-धात्री, धायमाता को कहते हैं । धायें पाँच प्रकार की होती हैं-क्षीरधात्री, मज्जनधात्री, मण्डनधात्री, क्रीड़ाधात्री आदि । धायें भी माता के तुल्य होती हैं । उनके साथ भी साधु एकान्त में किसी प्रकार का संसर्ग न करे । दूसरी स्त्रियों को जाने दीजिए, सबसे नीच जो पानी भरने वाली या घर का काम करने वाली दासियाँ.या नौकरानियाँ हैं,उनके माथ भी साधु सम्पर्क न रखे । बड़ी स्त्री हो, या कुमारी हो अथवा शब्द से कोई साध्वी हो, उनके साथ भी साधु अपना सम्पर्क रूप परिचय न करे । यद्यपि अपनी कन्या या पुत्रवधू के साथ एकान्त स्थान में रहने से साधु का चित्त सहसा विकृत नहीं हो सकता, तथापि लोगों को स्त्री के साथ एकान्त स्थान में बैठे या रहते देखकर शंका उत्पन्न हो सकती है अथवा नीतिकार भी कहते हैं
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमप्यत्र कर्षति ॥ अर्थात्-माता, बहन और पुत्री के साथ भी एकान्त में नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियाँ बड़ी बलवान होती हैं, वे विद्वान् पुरुष को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं।
___ इन कारणों से किसी भी स्त्री के साथ एकान्त में सम्पर्क करना वजित किया गया है।
साधु को स्त्री के साथ एकान्त स्थान में बैठे देखकर लोगों मन में किस प्रकार की शंका एवं प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, इसे बताते हैं
मूल पाठ अदु णाइणं च सुहीणं वा, अप्पियं दद्य एगता होति । गिद्धा सत्ता कामेहि, रक्खणपोसणे मणुस्सोऽसि ॥१४॥
संस्कृत छाया अथ ज्ञातीनां सुहृदां वा अप्रियं दृष्ट्वा एकदा भवति। गृद्धा: सत्त्वाः कामेषु, रक्षणपोषणे मनुष्योऽसि ॥१४।।
अन्वयार्थ (एगता) किसी समय (दछु) एकान्त स्थान में स्त्री के साथ बैठे हुए साधु को देखकर (णाइणं च सुहीणं वा) उस स्त्री के ज्ञाति (स्व) जनों अथवा सुहृदों
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