________________
५२२
सूत्रकृतांग सूत्र
वर्तमान सुख की ओर ही है, वे पूर्वोक्त विभिन्न प्रकार से स्त्रीसंसर्गरूप त्याज्य निन्दनीय कर्म या झूठन के सेवन में प्रवृत्त होते हैं, उन्हें शास्त्रकार पाशस्थ या पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और अपच्छन्दरूप कुशीलों में कोई एक कुशील कहते हैं । अथवा काथिक, पश्यक, सम्प्रसारक और मामकरूप कुशीलों में से वे कोई एक कुशील हैं । यह निश्चित है कि स्त्रीसम्पर्क आदि निन्द्य कृत्यों के करने से साधु कुशील हो जाता है ।
अतः उत्तम तपस्या के द्वारा जिन्होंने अपने मन-वचन काया को तपाया है, वे तपस्वी यदि अपना कल्याण चाहते हैं तो चारित्र को नष्ट करने वाली स्त्रियों के साथ न रहें, न कहीं जावें और न कहीं क्रीड़ा करें, न बैठें, विहार न करें । साधु स्त्री को जलते हुए अंगारे के समान समझकर दूर से ही त्याग करे ।
मूल पाठ अवि धूयराहि सुहाहि धातीहि अदुवदासीह
1
महतीहि वा कुमारीहि, संथवं से न कुज्जा अणगारे ||१३||
संस्कृत छाया
अपि दुहितृभिः स्नुषाभिः धात्रीभिरथवा दासीभिः । महतीभिर्वा कुमारीभिः संस्तवं स न कुर्यादनगारः || १३||
अन्वयार्थ
( अवि धूय राहि) अपनी कन्याओं के भी साथ, ( सुहाहि ) पुत्रवधुओं, ( धातीहि ) दूध पिलाने वाली धायमाताओं ( अदुव) अथवा ( दासीहि ) दासियों, ( महतो) बड़ी उम्र की स्त्रियों अथवा ( कुमारीह) कुआरी कन्याओं के साथ ( से अणगारे ) वह अनगार (संथवं ) संसर्ग - परिचय ( न कुज्जा ) न करे ।
भावार्थ
अपनी पुत्रियाँ हों, पुत्रवधुएं हों, दूध पिलाने वाली धायमाताएँ हों, अथवा दासियाँ या नौकरानियाँ हों, बड़ी उम्र की स्त्रियाँ हों, अथवा कुँआरी कन्याएँ हों, उनके साथ भी साधु को संसर्ग नहीं करना चाहिए ।
व्याख्या
इन स्त्रियों के साथ भी साधु संसर्ग न करे
इस गाथा में शास्त्रकार ने उन स्त्रियों का उल्लेख किया जिनके पास बैठने या जिनके साथ संसर्ग करने से साधु पर किसी को सहसा अविश्वास नहीं हो सकता । फिर भी इन स्त्रियों के साथ साधु को परिचय, संसर्ग या अत्यधिक उठ-बैठ करना निषिद्ध बताया है। इसके लिए अवि (अपि) शब्द का प्रत्येक पद के साथ सम्बन्ध है । इन पदों का अर्थ क्रमशः इस प्रकार है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org