________________
स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन–प्रथम उद्देशक
५२१
अब एक दूसरे पहलू से बताया गया है कि अकेली स्त्री के साथ अकेले साधु का संसर्ग, चाहे वह धर्मकथा के निमित्त से ही क्यों न हो, उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा साधु स्त्री का गुलाम या वशीभूत होकर ही बार-बार किसी न किसी बहाने से स्त्रीसम्पर्क करने का प्रयत्न करेगा और स्पष्ट कहें तो वह उसे अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करेगा। निःसन्देह ऐसा करने वाला साधु साधुधर्म से भ्रष्ट हो जाता है, वह यथार्थ साधु, बाह्य-अभ्यन्तर ग्रन्थों (परिग्रहों) से रहित मुनि नहीं माना जा सकता । क्योंकि निषिद्ध आचरण के सेवन से उसका पतित हो जाना बहुत सम्भव है।
हाँ, यदि कोई स्त्री बीमारी या किसी अन्य गाढ़ कारणवश साधु के स्थान पर आने में असमर्थ हो, अतिवृद्ध हो, अशक्त हो और दूसरे सहायक (साथी) साधु उस समय न हों तो अकेला साधु भी उसके पास जाकर दूसरी स्त्रियों से वेष्टित या पुरुषों से युक्त उक्त स्त्री को वैराग्योत्पादक धर्मकथा कहे या मंगलपाठ सुनाए तो कोई आपत्ति नहीं है।
मूल पाठ जे एयं उंछं अणुगिद्धा, अन्नयरा हुँति कुसीलाणं । सुतवस्सिए वि से भिक्खू, नो विहरे सह णमित्थीसु ॥१२॥
संस्कृत छाया य एतदुच्छमनुगृद्धा अन्यतरास्ते भवन्ति कुशीलानाम् । सुतपस्व्यपि स भिक्षुर्न विहरेत् सार्धं खलु स्त्रीभिः ॥१२॥
अन्वयार्थ (जे) जो पुरुष (एयं) इस स्त्रीसंसर्गरूपी (उंछं) झूठन या त्याज्य निन्द्यकर्म में (अणुगिद्धा) अत्यन्त आसक्त हैं, (ते) वे (कुसीलाणं) कुशीलों—पार्श्वस्थ आदि लोगों में से (अन्नयरा) कोई एक (हति) हैं। (से भिक्खू) इसलिए वह साधु चाहे (सुतवस्सिए वि) उत्तम तपस्वी हो तो भी (इत्थीसु सह) स्त्रियों के साथ (नो विहरे) विहार न करे।
भावार्थ जो पुरुष स्त्रीसंसर्गरूपी त्याज्य निन्दनीय कुकृत्य-- झूठन में अत्यन्त आसक्त हैं, वे पाशस्थ, अवसन्न आदि कुशीलों में से कोई एक हैं । अतः साधु चाहे कितना ही उत्तम तपस्वी क्यों न हो, स्त्रियों के साथ विहार (क्रीड़ा, गमन आदि) न करे।
व्याख्या
___ स्त्रीसंसर्गरूप निन्द्यकर्म में आसक्त कुशील हैं जिन मंदबुद्धि अदूरदर्शी साधकों की दृष्टि उत्तम संयमानुष्ठान छोड़कर सिर्फ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org