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________________ ५२० सूत्रकृतांग सूत्र संस्कृत छाया तस्मात्तु वर्जयेत् स्त्रीः विषलिप्तमिव कण्टकं ज्ञात्वा । ओजः कुलाणि वशवर्ती, आख्याति न सोऽपि निर्ग्रन्थः ॥११॥ अन्वयार्थ (तम्हाउ) इसलिए (विलित्त व कंटगं णच्चा) स्त्री को विष से लिप्त कांटे के समान समझकर (इत्थी वज्जए) साधु स्त्री-संसर्ग से दूर रहे। (वसवत्ती) स्त्री के वश में रहने वाला जो साधक (ओए कुलाणि) अकेला किसी अकेली स्त्री के घर में जाकर (आघाते) धर्म का कथन-उपदेश करता है, (ण से वि णिग्गंथे) वह भी निर्ग्रन्थ नहीं है। भावार्थ स्त्रियों को विष से लिपटे हुए काँटे के समान जानकर साधु दूर से ही उनके संसर्ग का त्याग करे। जो व्यक्ति स्त्री के वश (गुलाम) होकर गृहस्थों के घर में जाकर अकेला किसी अकेली स्त्री को धर्मकथा सुनाता है, वह भी निर्ग्रन्थ साधक नहीं है । व्याख्या स्त्रीसंसर्ग विषलिप्तकण्टकसम त्याज्य ___ एक तो काँटा हो, फिर वह विषलिप्त हो, वह चुभने पर केवल पीड़ा ही नहीं करता, जानलेवा भी बन जाता है। यदि वह शरीर के किसी भी अंग में चुभकर टूट जाय तो अनर्थ पैदा करता है। इसी तरह पहले तो स्त्री का स्मरण ही अनर्थकारी है, फिर उसका संसर्ग किया जाय तो वह विषलिप्त काँटे की तरह एक ही बार प्राण नहीं लेता, किन्तु अनेक जन्मों तक जन्म-मरण और नाना प्रकार के दुःख देता रहता हैं । किसी विद्वान् ने विष और विषय के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा है विषस्य विषयाणां च, दूरमत्यन्तमन्तरम् । उपभुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि ॥ अर्थात्-- विष और विषय (कामसेवन) में परस्पर बहुत अन्तर है । विष तो खाने पर प्राण हरण करता है, किन्तु विषय (कामभोग) स्मरण करने से ही प्राणनाश करते हैं। एक प्राचीन आचार्य ने कहा है वरि विसखइयं, न विसयसुहु इक्कसि विसिणि मरंति । विसयामिस पुण धारिया पर णरएहिं पडंति ॥ अर्थात् - विष खाना अच्छा है, किन्तु विषय का सेवन अच्छा नहीं; क्योंकि विष खाने से तो जीव एक ही बार मरण का कष्ट पाता है, किन्तु विषयरूपी मांस के सेवन से मनुष्य नरक के गड्ढे में गिरकर बार-बार कष्ट पाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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