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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन–प्रथम उद्देशक छटपटाता है। वह अपने परिवार के भरणपोषण के लिए अहर्निश चिन्तित रहता है, मन में क्लेश पाता रहता है। कारण यह है कि गृहस्थवास स्वीकार करने वाले व्यक्ति के लिए निम्नोक्त चिन्ताएँ हरदम लगी रहती हैं-"कौन क्रोधी है ? कौन समचित्त है ? कैसे उसे वश में करूं? यह मुझे धन कैसे दे ? किस दानी को मैंने छोड़ दिया है ? कौन विवाहित है ? और कौन कुंआरा है ?"१ ये और इस प्रकार की चिन्ता करता हुआ व्यक्ति नाना प्रकार के पापकर्मों का बन्ध करता है तथा वह व्यक्ति पश्चात्ताप करता हुआ कहता है-“मैंने कुटुम्ब का भरण-पोषण करने हेतु अनेक कुकर्म किये। उन कुकृत्यों के कारण मैं अकेला दुःख भोग रहा हूँ, दूसरे फल भोगने वाले तो अन्यत्र चले गये ।"२ इस प्रकार महामोहात्मक कुटुम्बपाश में पड़ा हुआ व्यक्ति पश्चात्ताप करता है।
इसी बात को शास्त्रकार दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं -- जैसे कोई विषमिश्रित अन्न खाकर बाद में विष के वेग से व्याकुल होकर पश्चात्ताप करता है-हाय ! वर्तमान सुखरसिक बनकर मुझ पापी ने परिणाम में दुःखदायी ऐसा भोजन क्यों कर लिया ? इसी प्रकार स्त्री के मोहपाश में बद्ध व्यक्ति भी पुत्र, पौत्र, कन्या, दामाद, बहन, भतीजे और भानजे आदि के भोजन, वस्त्र, आभूषण, विवाह, जातकर्म और मृतकर्म आदि एवं उनकी बीमारी की चिकित्सा आदि कई चिन्ताओं से व्याकुल होकर अपने शरीर का कर्तव्य भी भूल जाता है। वह इस लोक एवं परलोक के लिए जो कुछ धर्माचरण करना है, उससे विमुख होकर केवल अपने परिवार के पालन-पोषण में ही व्याकुलचित्त से संलग्न रहता हुआ पश्चात्ताप करता है । अतः विवेक को अपनाकर चारित्र में विघ्नकारिणी स्त्रियों के साथ एक स्थान में निवास करना मुक्तिगमनयोग्य या रागद्वेषवजित साधु के लिए उचित नहीं है, क्योंकि स्त्रियों के साथ संवास करना विवेकी साधक के उत्तम अनुष्ठानों में विघातक होता है।
___ स्त्री-संसर्ग से उत्पन्न दोषों को बताकर उपसंहार करते हुए शास्त्रकार कहते हैं
मल पाठ तम्हा उ वज्जए इत्थी, विसलित्त व कंटगं नच्चा। ओए कुलाणि वसवत्ती आघाते ण से वि णिग्गंथे ॥११॥
१. कोद्धयओ को समचित्तु, काहोवणाहिं काहो दिज्जउ वित्त ? को उग्घाडउ परि
हियउ परिणीयउ को व कुमारउ पडियत्तो जीव खडप्फडेहि परं बंधइ पावह
भारओ। २. मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म सुदारुणम् ।
एकाकी तेन दह्य ऽहं, गतास्ते फलभोगिनः ॥
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