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सूत्रकृतांग सूत्र
समझाते हैं- 'अह तत्थ पुणो णमयंती .... मुच्चए ताहे।' अर्थात् - अपने वश में कर लेने के पश्चात् कामकलादक्ष नारियाँ साधु को अपने अभीष्ट अर्थ में झुका लेती हैं। जिस तरह एक बढ़ई रथ के चक्र के बाहर की गोलाकार पुट्ठी (नेमि) को क्रमश: नमा देता है, उसी तरह साधु को भी वे नारियाँ अनुकूल कार्यों में प्रेरित करती हैं। स्त्री के पाश में एक बार बँध जाने के बाद वह साधु पाशबद्ध मृग की तरह छूटना चाहने पर भी तथा भरसक प्रयत्न कर लेने पर भी छूट नहीं सकता। कितना जबर्दस्त मोहपाश का बन्धन है। एक कवि ने ठीक कहा है
बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत् ।
दारुभदनिपुणोऽपि षडंघ्रिनिष्क्रियो भवति पंकजकोषे ।।
अर्थात्- संसार में बहुत से बन्धन हैं, पर प्रेम (मोह) रूपी रस्सी का बन्धन निराला ही है। देखो, कठोर काष्ठ को भेदन करने में निपुण भौंरा कमल के प्रेम (मोह) के वशीभूत होकर उसके कोष में ही निष्क्रिय होकर स्वयं बन्द हो जाता है ।
मूल पाठ अह सेऽणुतप्पई पच्छा, भोच्चा पायसं व विसमिस्सं । एवं विवेगमादाय, संवासो नवि कप्पए दविए ॥१०॥
संस्कृत छाया अथ सोऽनुतप्यते पश्चात् भुक्त्वा पायसमिव विषमिश्रम् । एवं विवेकमादाय संवासो नाऽपि कल्पते द्रव्ये ॥१०॥
अन्वयार्थ (अह) स्त्री के वश में होने के पश्चात् (से) वह साधु (पच्छा अणुतप्पई) बाद में पश्चात्ताप करता है। (विसमिस्स) जैसे विष मिली हुई (पायस) खीर (भोच्चा) खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है । (एवं) इसी प्रकार (विवेगमादाय) विवेक को अपनाकर (दविए) मुक्तिगमनयोग्य साधु को (संवासो) स्त्रियों के साथ एक स्थान में निवास या संसर्ग करना (नवि कप्पए) उचित नहीं है-कल्पनीय नहीं है।
भावार्थ जैसे विषमिश्रित खीर का सेवन करके मनुष्य बाद में पछताता है, वैसे ही स्त्री के वश में होने पर मनुष्य पश्चात्ताप करता है। अतः इस बात का विवेक करके मुक्तिगमन के योग्य साधक का स्त्री के साथ एक स्थान में रहना योग्य नहीं है।
व्याख्या स्त्री के मोहपाश में बंधने से पश्चात्ताप
स्त्री के मोहपाश में बद्ध अनगार कूटपाश में बँधे हुए मृग की तरह रात-दिन
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