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________________ स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन – प्रथम उद्देशक ५१७ 'सीहं जहा ...... एगतियमणगारं ।' आशय यह है कि वन में स्वच्छन्द विचरण करने वाला एकाकी वनराज कितना पराक्रमी होता है ? किन्तु सिंह को पकड़ने वाले चतुर शिकारी उसे मांस आदि का लोभ देकर विविध उपायों से उसके गले में किसी प्रकार से फंदा डालकर बाँध लेते हैं । वे उसे अनेक प्रकार की यातनाएँ देकर पालतू पशु की तरह काबू में कर लेते हैं। ठीक इसी प्रकार कामकला चतुर स्त्रियाँ पूर्वोक्त अनेक प्रकार के उपायों से मन-वचन काया को गुप्त - सुरक्षित रखने वाले कठोर संयम साधु को भी अपने वश में कर लेती हैं, मोहपाश में बाँध लेती हैं । यहाँ 'संवुडं' पद देकर शास्त्रकार ने स्त्रियों की शक्ति का दिग्दर्शन किया है कि जब वे इतने सुसंवृत साधु को भी अपना पथ बदलने को विवश कर सकती हैं, तब जिनके मन-वचन-काया सुरक्षित - गुप्त नहीं है, उनका तो कहना ही क्या ? मूल पाठ अह तत्थ पुणो णमयंती, रहकारो व गेम आणुपुब्बीए । बद्धे मिए व पासेणं फंदते वि ण मुच्चए ताहे संस्कृत छाया 11211 1 अथ तत्र पुनर्नमयन्ति, रथकार इव नेमिमानुपूर्व्या बद्धो मृग इव पाशेन स्पन्दमानोऽपि न मुच्यते तस्मात् ।।६।। अन्वयार्थ ( रहकारी) रथकार ( णेमि व ) जैसे नेमि- -चक्र को ( आणुपुव्वीए) क्रमश: ना (झुका) देता है, इसी तरह स्त्रियाँ साधु को ( अह ) अपने वश में करने के पश्चात् (तत्थ ) अपने इष्ट अर्थ में क्रमश: ( णमयंती) झुका लेती हैं । (मिए व ) मृग की तरह ( पासेणं) पाश से (बद्ध ) बँधा हुआ साधु ( फंदते वि) पाश से छूटने के लिए उछल-कूद मचाता हुआ भी ( ताहे) उससे ( ण मुच्चए) छूटता नहीं है । भावार्थ जैसे रथकार रथ की नेमि (पुट्ठी) को क्रमशः नमा देता है, इसी तरह स्त्रियाँ साधु को अपने वश में करके क्रमशः अपने अभीष्ट अर्थ में झुका लेती हैं । जैसे पाश में बँधा हुआ मृग पाश से मुक्त होने के लिए बहुत छटपटाता है, पर छूट नहीं सकता, वैसे ही कामकलादक्ष ललनाओं के मोहपाश में बँधा हुआ साधु कितनी ही उछलकूद मचा ले, वह पाश से मुक्त नहीं हो सकता । व्याख्या एक बार मोहपाशबद्ध साधु छूट नहीं सकता इस गाथा में मोहपाशबद्ध साधु की कैसी दशा होती है ? इसे दृष्टान्त द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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