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________________ ५१६ सूत्रकृतांग सूत्र कहती हैं-"प्रिय ! अब तो मान जाइये न ! आप रूठिए मत । आप रूठेंगे तो मै भी रूठ जाऊँगी।" कभी वे मन्द हास्य करती हैं- 'नाथ ! अब तो आपको मैं जाने न दूंगी। आप मुझे निराधार छोड़कर कहाँ जाएँगे?" कभी एकान्त में कामवासना भड़काने वाली बातों से साधु के चित्त में विकृति पैदा कर देती हैं। इस प्रकार साधु को किसी प्रकार मोहित एवं वशीभूत करके वे स्त्रियाँ उसकी दुर्बलता को जानकर उसे गुलाम बना लेती हैं। फिर तो उसे इतना बाध्य कर देती हैं कि उसे मजबूर होकर उक्त कामिनियों के कहे अनुसार सहवास आदि करना पड़ता है। ___वे चतुर स्त्रियाँ किस प्रकार साधु को अपने मोहपाश में बाँध लेती हैं ? इसे आगामी गाथा में कहते हैं मूल पाठ सीहं जहा व कुणिमेणं निब्भयमेगचरंति पासेणं । एवित्थियाउ बंधंति, संवुडं एगतियमणगारं ॥८॥ संस्कृत छाया सिंहं यथाहि कुणिमेन निर्भयमेकचरं पाशेन । एवं स्त्रियो बध्नन्ति संवृतमेकतयमनगारम् ॥८॥ अन्वयार्थ (जहा) जैसे (निन्भयं) निर्भय (एगचरं) अकेले वन में विचरण करने वाले (सोह) सिंह को (कुणिमेणं) मांस खिलाकर (पासेणं) पाश से (बंधति) सिंह पकड़ने वाले लोग बाँध लेते हैं। (एवं) इसी तरह (इत्थियाउ) स्त्रियाँ (संवुडं) मन-वचनकाया से गुप्त--संवृत रहने वाले शान्त (एगतियं अणगारं) किसी अनगार को (बंधंति) अपने मोहपाश में जकड़ लेती हैं। भावार्थ जैसे सिंह को पकड़ने वाले शिकारी मांस का लोभ देकर अकेले निर्भय विचरण करने वाले सिंह (वनराज) को अपने पाशबन्धन में बाँध लेते हैं, वैसे ही चतुर स्त्रियाँ मन-वचन-काया को संवत-गुप्त रखने वाले शान्त उक्त अनगार को भी अपने मोहपाश में जकड़ लेती हैं। जब वे मनवचन-काया से गुप्त रहने वाले साधु को भी वश में कर लेती हैं, तब सामान्य पुरुष की तो बिसात ही क्या ? व्याख्या सिंह की तरह संवृत पुरुषसिंह को भी वश में कर लेती हैं इस गाथा में उन चतुर नारियों का सामर्थ्य दृष्टान्त देकर बताया है कि किस प्रकार वे कठोर संयमी साधु को भी अपने मोहपाश में जकड़ लेती हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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