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________________ स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन-प्रथम उद्देशक ५१५ (कलुणविणीयमुवगसित्ताणं) तथा करुणोत्पादक वाक्यों और विनीतभाव से साधु के पास आकर (अदु मंजुलाई भासंति) वे रमणियाँ मधुर-मधुर भाषण करती हैं, (भिन्नकहाहि आण वयंति) और कामसम्बन्धी वार्तालाप के द्वारा साधु को अपने साथ कुकर्म करने की आज्ञा देती हैं। भावार्थ चालाक नारियाँ साधु के चित्त को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अनेक प्रकार के मनोहारी उपाय आजमाती हैं। कभी वे करुणाजनक वाक्य बोलकर अनुनय-विनय करती हुईं साधु के पास आती हैं। कभी साधु के पास आकर मधुर-मधुर बातें करती हैं। वे कामोत्तेजक वार्तालाप के द्वारा साधु को अपने साथ सम्भोग करने की आज्ञा दे देती हैं। व्याख्या चालाक स्त्रियों के द्वारा साधु को आकर्षित करने के उपाय इस गाथा में भी यह बताया गया है कि चालाक स्त्रियाँ किस प्रकार साधु को विविध मधुर उपायों से अपने साथ समागम के लिए मना लेती हैं, यहाँ तक कि अपना गुलाम बनाकर उसे समागम के लिए मजबूर कर देती हैं .---'मणबंधहि णेगेहिं ।' अर्थात् सर्वप्रथम वे चतुर नारियाँ मन को कामपाश में बाँध देने वाले विविध आकर्षणकारी दृश्यों, संगीतों, रसों, सुगन्धियों एवं कोमल गुदगुदाने वाले स्पर्शों से लुभाकर अपनी ओर खींचती हैं। इसके लिए वे मधुर-मधुर वचन कहती हैं, आकर्षक शब्दों से सम्बोधित करती हैं, उस साधक की ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से कटाक्ष फैककर अथवा आँखें या मुह मटकाकर देखती हैं, कभी अपने स्तन, नाभि, कमर, जंघा आदि अंगों को दिखाती हैं, कभी मनोहर हावभाव, अभिनय या अंगविन्यास करती हैं, जिससे कि साधु उन पर मोहित हो जाय। कभी वे करुणा पैदा करने वाले मधुर आलाप करती हैं- "हे नाथ ! हे प्रिय ! हे कान्त ! हे स्वामी! हे दयित ! हे जीवनाधार ! हे प्राणप्यारे ! आप मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं । मैं तो आपके जीने से जीती हूँ, आप ही मेरे शरीर के मालिक हैं । मुझे आपने बहुत रुलाया, बहुत प्रतीक्षा करायी। अब तो बहुत हो चुकी। अब इन्कार करोगे तो मैं यहीं प्राण दे दूंगी । आपको मेरी सौगन्ध है । आप मुझे नहीं अपनाओगे तो मैं मर जाऊँगी। आपको नारीहत्या का पाप लगेगा । बस अब तो मुझे अपने चरणों की चेरी बना लें। मैं आपकी दासी बनकर आपकी हर तरह से सेवा करूंगी। आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें। निश्चित होकर सहवास करें।" इत्यादि करुणाजनक, विश्वासोत्पादक मधुर वचनों से साधक के हृदय में आकर्षण पैदा करके कामवासना भड़का देती हैं। कभी वे साधु के पास आकर अनुनय विनय करती हैं और साधु के हृदय में काम का प्रबल ज्वर उत्पन्न कर देती हैं। कभी मधुर वचनों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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