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________________ स्त्रीपरिज्ञा : चतुथ अध्ययन–प्रथम उद्देशक ५२५ है, भीख माँगफर पापी पेट को भरता है, इसका शरीर मैल से गंदा हो रहा है, और शोभा से रहित भद्दा तथा भौंड़ा है। फिर भी आश्चर्य है कि इसके मन की इच्छा काम-भोगों में लगी है। साधु के इस रवैये को देखकर तथा उस स्त्री के स्वजनों द्वारा बार-बार रोक-टोक करने एवं समझाने पर भी जब साधु अपना प्रतिकूल रवैया नहीं छोड़ता, तब वे क्रुद्ध होकर उस साधु से कहते हैं---"अब तो आप ही इस स्त्री का भरण-पोषण करिए, क्योंकि यह आपके पास ही अधिकतर बैठी रहती है, इसलिए आप ही इसके स्वामी हैं।' अथवा 'रक्खणपोसणे' में समाहारद्वन्द्वसमास है, इसलिए ऐसा अर्थ भी हो सकता है कि उस स्त्री के जाति वाले उस साधु पर ताना मारते हुए कहते हैं"हम लोग तो इस स्त्री का भरण-पोषण करने वाले हैं, इसके पति तो तुम हो, क्योंकि यह अपने सब कामकाज छोड़कर सदा तुम्हारे पास ही बैठी रहती है।" मूल पाठ समणं पि दठ्ठदासीणं, तत्थ वि ताव एगे कुप्पति । अदुवा भोयणेहिं णत्थेहि, इत्थीदोसं संकिणो होति ।।१५।। संस्कृत छाया श्रमणमपि दृष्ट्वोदासीनं, तत्रापि तावदेके कुप्यन्ति । अथवा भोजनैय॑स्तैः स्त्रीदोषशंकिनो भवन्ति ॥१५॥ __अन्वयार्थ (दासीणं पि समणं) रागद्वषवजित उदासीन तपस्वी साधु को भी (दठ्ठ) स्त्री के साथ एकान्त में बातचीत करते या बैठे देखकर (तत्थ वि एगे कुप्पंति) इस सम्बन्ध में कोई-कोई एक क्रुद्ध हो जाते हैं। (इत्थीदोसं संकिणो होंति) और वे उस स्त्री में दोष की शंका करते हैं। (अदुवा भोयणेहिं पत्थेहि) अथवा वे यह समझते हैं कि यह स्त्री इस साधु की प्रेमिका है, इसलिए यह नाना प्रकार का आहार तैयार करके साधु को देती है। भावार्थ राग-द्वष से वजित, उदासीन एवं तपस्वी श्रमण को भी स्त्री के साथ एकान्त में बातचीत करते या बैठे देखकर कोई-कोई व्यक्ति आगबबूला (क्रोधित) हो उठते हैं और वे उस स्त्री में (बदचलनी या दुश्चरित्रता) दोष की आशंका करने लगते हैं। वे समझते हैं--यह स्त्री इस साधु की प्रेमिका है, इसीलिए तो यह नाना प्रकार का स्वादिष्ट आहार बनाकर साधु को दिया करती है। व्याख्या श्रमण एवं स्त्री के प्रति लोगों का क्रोध और आशंका इस गाथा में तपस्या से खिन्न शरीर वाले श्रमण को भी स्त्री के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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