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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन–प्रथम उद्देशक
५०५ जो पुरुष धर्माचरण करने में उत्साही नहीं है, इसलिए शुभ अनुष्ठान में उद्यम नहीं करता, तथा सत्पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग से भ्रष्ट होता है, वह चाहे कितना ही बलवान् हो, उसे शूरवीर नहीं कहा जा सकता।
स्त्रियों के सम्बन्ध से पुरुष में उत्पन्न होने वाले जितने दोष बताये गये हैं, उतने ही पुरुष के सम्बन्ध से स्त्री में भी उत्पन्न होते हैं। इसी से नियुक्तिकार कहते हैं-ये (पूर्वोक्त शीलनाश आदि) सभी दोष, उतने ही (कम-ज्यादा नहीं) पुरुषों के सम्बन्ध से स्त्रियों में उत्पन्न होते हैं। अतः दीक्षा धारण की हुई साध्वियों को भी पुरुषों के साथ परिचय आदि के त्याग में अप्रमत्त रहना ही श्रेयस्कर है। इस अध्ययन में स्त्री के संसर्ग से पुरुष में होने वाले दोषों के समान ही पुरुष के संसर्ग से स्त्री में होने वाले दोष भी बताये गये हैं, तथापि इसका नाम 'पुरुषपरिज्ञा' न रखकर 'स्त्रीपरिज्ञा' रखा गया है । उसका कारण है, अधिकतर दोष स्त्री-सम्पर्क से ही पैदा होते हैं।
निक्षेप की दृष्टि से स्त्री के विभिन्न अर्थ इस अध्ययन का नाम स्त्रीपरिज्ञा है। इसमें स्त्री शब्द के नाम और स्थापना निक्षेप को छोड़कर द्रव्य आदि निक्षेप पर विचार करते हैं-द्रव्यस्त्री दो प्रकार की है---आगम (ज्ञान) से और नोआगम से । जो पुरुष स्त्रीपदार्थ को जानता है, परन्तु उसमें उपयोग नहीं रखता, वह द्रव्य-स्त्री है, क्योंकि उपयोग न रखना ही द्रव्य है। ज्ञशरीर और भव्यशरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यस्त्री के तीन प्रकार हैं- एक है एक-भविका (जो जीव एक भव के बाद ही स्त्रीभव को प्राप्त करने वाला है), दूसरी है--बद्धायुष्का (जिसने स्त्री की आयु बाँध ली है), तथा तीसरी हैअभिमुखनामगोत्रा (जिस जीव के स्त्रीनामगोत्र अभिमुख हो)।
__ इसके अतिरिक्त चिह्नस्त्री, वेदस्त्री और अभिलापस्त्री ये भी स्त्री अर्थ के द्योतक हैं। जो चिह्नमात्र से स्त्री है अथवा स्त्री के स्तन आदि अंगोपांग तथा स्त्री की तरह की पोशाक आदि का धारण करना, अथवा जिस महान् आत्मा का स्त्रीवेद नष्ट हो गया है, ऐसा छमस्थ या केवली अथवा अन्य कोई जीव जो स्त्री का वेष धारण करता है, वह चिह्नस्त्री है। पुरुष भोगने की इच्छारूप स्त्रीवेद के उदय को वेदस्त्री कहते हैं। जो कहा जाता है, उसे अभिलाप कहते हैं। स्त्रीलिंग को कहने वाला शब्द अभिलापस्त्री है। जैसे माला, मैना, सीता, गीता आदि शब्द ।
____ भावस्त्री दो प्रकार की है आगम से और नोआगम से । जो जीव स्त्रीपदार्थ को जानता हुआ उसमें उपयोग रखता है, वह आगम से भावस्त्री है। नोआगम से भावस्त्री वह है, जो स्त्रीवेदरूप वस्तु में उपयोग रखता है, क्योंकि उपयोग उस जीव से भिन्न नहीं होता। जैसे अग्नि में उपयोग रखने वाला बालक भी अग्नि कहलाता है। अथवा स्त्रीवेद को उत्पन्न करने वाले उदयप्राप्त जो कर्म
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