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________________ ५०६ सूत्रकृतांग सूत्र हैं, उनमें जो उपयोग रखता है, अर्थात् स्त्रीवेदनीय कर्मों को जो अनुभव करता है, वह नोआगम से भावस्त्री है । यह स्त्री शब्द का निक्षेप है । स्त्री के विपक्षभूत पुरुष के निक्षेपदृष्टि से अर्थ स्त्री के विपक्षभूत पुरुष के भी निक्षेपदृष्टि से विभिन्न अर्थ समझ लेने चाहिए | संज्ञा को नाम कहते हैं । जो संज्ञामात्र से पुरुष है, वह नामपुरुष है । लकड़ी आदि की बनायी हुई पुरुषाकृति स्थापनापुरुष है । द्रव्यपुरुष ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त नोआगम से तीन प्रकार का है- एकभविक, बद्धायुक एवं अभिमुखनामगोत्र । अथवा द्रव्य (धन में जिसका मन अत्यन्त आसक्त है, उस द्रव्यप्रधान पुरुष को द्रव्यपुरुष कहते हैं । जैसे -- मम्मण वणिक् इत्यादि । क्षेत्रपुरुष वह है, जो जिस क्षेत्र में जन्मा है, जैसे सौराष्ट्र देश में जन्मा हुआ पुरुष सौराष्ट्रिक कहलाता है । अथवा जिसको जिस क्षेत्र के आश्रय से पुरुषत्व प्राप्त होता है, वह उस क्षेत्र का क्षेत्रपुरुष है । जो जितने काल तक पुरुषवेदनीय कर्मों को भोगता है, वह कालपुरुष कहलाता है । जिसके पुरुष चिह्न (प्रजननलिंग) हो, वह प्रजननपुरुष है। अनुष्ठान को कर्म कहते है, जिसमें कर्म प्रधान है, उसे कर्मपुरुष कहते हैं । भोगप्रधान पुरुष को भोगपुरुष (चकवर्ती आदि) कहते हैं । धैर्य आदि गुणप्रधान पुरुष को गुणपुरुष कहते हैं । भावपुरुष वह है, जो पुरुषवेदनीय कर्मों को अनुभव कर रहा है । इस प्रकार पुरुष के दश निक्षेप होते हैं । प्रथम उद्देशक : स्त्रीसंसर्ग से शीलनाश जैसा कि प्रथम उद्देशक के अर्थाधिकार में बताया गया है कि स्त्रियों के साथ अतिसंसर्ग रखने से तथा चारित्रविघातक बातें करने आदि से शीलनाश कैसे-कैसे हो जाता है ? इसी सन्दर्भ में प्राप्त प्रसंगानुसार इस उद्देशक की प्रथम गाथा इस प्रकार है मूल पाठ जे मायरं च पियरं च विप्पजहाय पुव्वसंजोगं 1 एगे सहिते चरिस्सामि, आरतमेहुणो विवित्तसु ॥१॥ सुमेणं तं परिक्क्म्म, छन्नपण इत्थिओ मंदा 1 उव्वापि ताउ जाणं, जहा लिस्संति भिक्खुणो एगे ॥ २ ॥ संस्कृत छाया यः मातरं च पितरं च, विप्रहाय पूर्वसंयोगम् एक: सहितश्चरिष्यामि आरतमैथुनो विविक्तेषु ॥ १ ॥ F Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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