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सूत्रकृतांग सूत्र
हैं, उनमें जो उपयोग रखता है, अर्थात् स्त्रीवेदनीय कर्मों को जो अनुभव करता है, वह नोआगम से भावस्त्री है । यह स्त्री शब्द का निक्षेप है । स्त्री के विपक्षभूत पुरुष के निक्षेपदृष्टि से अर्थ
स्त्री के विपक्षभूत पुरुष के भी निक्षेपदृष्टि से विभिन्न अर्थ समझ लेने चाहिए | संज्ञा को नाम कहते हैं । जो संज्ञामात्र से पुरुष है, वह नामपुरुष है । लकड़ी आदि की बनायी हुई पुरुषाकृति स्थापनापुरुष है । द्रव्यपुरुष ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त नोआगम से तीन प्रकार का है- एकभविक, बद्धायुक एवं अभिमुखनामगोत्र ।
अथवा द्रव्य (धन में जिसका मन अत्यन्त आसक्त है, उस द्रव्यप्रधान पुरुष को द्रव्यपुरुष कहते हैं । जैसे -- मम्मण वणिक् इत्यादि । क्षेत्रपुरुष वह है, जो जिस क्षेत्र में जन्मा है, जैसे सौराष्ट्र देश में जन्मा हुआ पुरुष सौराष्ट्रिक कहलाता है । अथवा जिसको जिस क्षेत्र के आश्रय से पुरुषत्व प्राप्त होता है, वह उस क्षेत्र का क्षेत्रपुरुष है । जो जितने काल तक पुरुषवेदनीय कर्मों को भोगता है, वह कालपुरुष कहलाता है । जिसके पुरुष चिह्न (प्रजननलिंग) हो, वह प्रजननपुरुष है। अनुष्ठान को कर्म कहते है, जिसमें कर्म प्रधान है, उसे कर्मपुरुष कहते हैं । भोगप्रधान पुरुष को भोगपुरुष (चकवर्ती आदि) कहते हैं । धैर्य आदि गुणप्रधान पुरुष को गुणपुरुष कहते हैं । भावपुरुष वह है, जो पुरुषवेदनीय कर्मों को अनुभव कर रहा है । इस प्रकार पुरुष के दश निक्षेप होते हैं ।
प्रथम उद्देशक : स्त्रीसंसर्ग से शीलनाश
जैसा कि प्रथम उद्देशक के अर्थाधिकार में बताया गया है कि स्त्रियों के साथ अतिसंसर्ग रखने से तथा चारित्रविघातक बातें करने आदि से शीलनाश कैसे-कैसे हो जाता है ? इसी सन्दर्भ में प्राप्त प्रसंगानुसार इस उद्देशक की प्रथम गाथा इस प्रकार है
मूल पाठ
जे मायरं च पियरं च विप्पजहाय पुव्वसंजोगं 1 एगे सहिते चरिस्सामि, आरतमेहुणो विवित्तसु ॥१॥ सुमेणं तं परिक्क्म्म, छन्नपण इत्थिओ मंदा 1 उव्वापि ताउ जाणं, जहा लिस्संति भिक्खुणो एगे ॥ २ ॥ संस्कृत छाया यः मातरं च पितरं च, विप्रहाय पूर्वसंयोगम् एक: सहितश्चरिष्यामि आरतमैथुनो विविक्तेषु ॥ १ ॥
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