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________________ ५०४ सूत्रकृतांग सूत्र - - - - ऐसे बहादुर आदमी भी अल्पपराक्रमी बनकर स्त्रियों की खुशामद करते हुए अशक्त बना दिये जाते हैं। अपने को शूरवीर मानने वाले पुरुष भी स्त्री के वश में होकर दीन होते देखे गये हैं। इसलिए साधक को स्त्रियों पर सहसा विश्वास कर लेना खतरे से खाली नहीं है । कहा भी है ---- को वीससेज्ज तासि कतिवयभरियाण दुव्वियड्ढाणं ! । खणरत्तविरत्ताणं धिरत्थु इत्थीण हिययाणं अण्णं भणंति पुरओ अण्णं पासे णिवज्जमाणीओ । अन्नं तासि हियए जं च खमं ते करिति पुणो महिला य रत्तमेत्ता उच्छृखंडं च सक्करा चेव । सा पुण विरत्तमित्ता णिबंकूरे विसेसेइ असयारंभाण तहा सव्वेसि लोगगरहणिज्जाणं परलोगवेरियाणं कारणयं चेव इत्थीओ अहवा को जुवईणं जाणइ चरियं सहावकुडिलाणं । दोसाण आगरो च्चिय जाण सरीरे वसइ कामो ॥ मूलं दुच्चरियाणं हवइ उ णरयस्स वत्तणी विउला । मोक्खस्स महाविग्घं वज्जेयव्वा सया णारी धण्णा ते वरपुरिसा जे च्चिय मोत्तूण णिययजुवईओ । पव्वइया कयनियमा सिवमयलमणुत्तरं पत्ता अर्थात् --कपट से भरी हुई और दुःख से समझाने योग्य तथा क्षणमात्र में अनुराग करने वाली और क्षणभर में विरक्त होने वाली स्त्रियों पर कौन विश्वास कर सकता है ? पूर्वोक्त दुर्गुणों से भरे हुए स्त्रीहृदय को धिक्कार है ! स्त्रियाँ सामने कुछ और कहती हैं, दूसरे के पास कुछ और करती हैं। उनके हृदय में कुछ और बात होती है, किन्तु मन में जो ठानती हैं, वही करती हैं। अनुरक्त होने पर स्त्री गन्ने या शक्कर की तरह मीठी होती है, किन्तु विरक्त होने पर वही स्त्री नीम के अंकुर से भी अधिक कड़वी हो जाती है। लोक में निन्दा के योग्य तथा परलोक में शत्रु के समान जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं, उन सबकी कारण स्त्रियाँ हैं। अथवा स्वभाव से ही कुटिल युवतियों के चरित्र को कौन जान सकता है, क्योंकि दोषों का भण्डार कामदेव उनके शरीर में वास करता है। स्त्रियाँ दुष्टआचरण की मूल हैं, नरक की विशाल राजमार्ग हैं, मोक्ष जाने में महाविध्नकारिणी हैं तथा स्त्रियाँ सदैव त्याज्य हैं। वे श्रेष्ठपुरुष धन्य हैं, जो अपनी सुन्दरी स्त्री को छोड़कर दीक्षा धारण करके यम-नियम का पालन करके अचल अनुत्तर कल्याणस्थान मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं। - शूरवीर वही है, जिसकी बुद्धि श्रुतचारित्रधर्म में निश्चल है, तथा जो इन्द्रियों और मनरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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