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________________ ५०० सूत्रकृतांग सूत्र संस्कृत छाया 1 इमं च धर्ममादाय, कासवेण प्रवेदितम् कुर्यात् भिक्षुग्लनस्याग्लानतया समाहितः ||२१|| संख्याय पेशलं धर्मं, दृष्टिमान् परिनिर्वृतः । उपसर्गान् नियम्य, आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥ २२ ॥ ॥ इति ब्रवीमि ॥ अन्वयार्थ ( कासवेण पवेइयं ) काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीरस्वामी द्वारा कहे गये ( इमं च धम्ममादाय ) इस धर्म को स्वीकार करके ( समाहिए ) समाधियुक्त ( भिक्खू ) साधु (अगिला ए) अग्लानभाव से ( गिलाणस्स ) रुग्ण साधु की ( कुज्जा) सेवा करे । (दिट्ठि) सम्यग्दृष्टि (परिनिव्वुडे) रागद्वेषादि से निवृत्त- शान्त साधु (पेसलं धम्मं संखाय ) मुक्ति प्रदान करने में कुशल इस धर्म को सम्यक् प्रकार से जानकर ( उवसग्गे) समस्त उपसर्गों पर ( नियामित्ता) नियंत्रण - विजय प्राप्त करके या समभावपूर्वक सहन करके ( आमोक्खाय) मोक्षप्राप्ति तक ( परिव्वए) संयम का अनुष्ठान करे । भावार्थ काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर के द्वारा प्रतिपादित इस मोक्षप्राप्ति - कुशल धर्म को स्वीकार करके समाधियुक्त रहता हुआ अग्लानभाव से रुग्ण ( ग्लान) साधु की सेवा करे । सम्यग्दृष्टि शान्त साधक को मोक्ष प्रदान करने में कुशल इस धर्म को अच्छी तरह जानकर उपसर्गों को सहन करता हुआ मोक्षप्राप्तिपर्यन्त संयम का अनुष्ठान करे । Jain Education International व्याख्या उपसर्गों पर विजय, धर्माचरण : मोक्षप्राप्ति तक तीसरे अध्ययन की समाप्ति में शास्त्रकार ने इन दो गाथाओं की पुनरावृत्ति करके भी मोक्षप्राप्तिपर्यन्त उपसर्गों पर विजय एवं धर्म का भलीभाँति निरीक्षणपरीक्षण करके धर्माचरण की बात कूट-कूट कर भर दी है । २१वीं गाथा में पूर्ववत् दुर्गति में गिरते हुए जीव को धारण करने वाले श्रुतचारित्ररूप या मूल- उत्तरगुणरूप धर्म को आचार्य आदि के उपदेश से ग्रहण - स्वीकार करके अग्लानसाधु प्रसन्नचित्त से स्वयं को कृतकृत्य एवं धन्य मानता हुआ रोगी साधु की सेवा करे। ऐसा करते समय परीषह-उपसर्गों से न घबराए । उत्पन्न केवल - दिव्यज्ञान भव्यजीवोद्धारक भगवान् महावीर स्वामी ने इस धर्म को कहा था । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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