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सूत्रकृतांग सूत्र
संस्कृत छाया
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इमं च धर्ममादाय, कासवेण प्रवेदितम् कुर्यात् भिक्षुग्लनस्याग्लानतया समाहितः ||२१|| संख्याय पेशलं धर्मं, दृष्टिमान् परिनिर्वृतः । उपसर्गान् नियम्य, आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥ २२ ॥ ॥ इति ब्रवीमि ॥
अन्वयार्थ
( कासवेण पवेइयं ) काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीरस्वामी द्वारा कहे गये ( इमं च धम्ममादाय ) इस धर्म को स्वीकार करके ( समाहिए ) समाधियुक्त ( भिक्खू ) साधु (अगिला ए) अग्लानभाव से ( गिलाणस्स ) रुग्ण साधु की ( कुज्जा) सेवा करे । (दिट्ठि) सम्यग्दृष्टि (परिनिव्वुडे) रागद्वेषादि से निवृत्त- शान्त साधु (पेसलं धम्मं संखाय ) मुक्ति प्रदान करने में कुशल इस धर्म को सम्यक् प्रकार से जानकर ( उवसग्गे) समस्त उपसर्गों पर ( नियामित्ता) नियंत्रण - विजय प्राप्त करके या समभावपूर्वक सहन करके ( आमोक्खाय) मोक्षप्राप्ति तक ( परिव्वए) संयम का अनुष्ठान करे ।
भावार्थ
काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर के द्वारा प्रतिपादित इस मोक्षप्राप्ति - कुशल धर्म को स्वीकार करके समाधियुक्त रहता हुआ अग्लानभाव से रुग्ण ( ग्लान) साधु की सेवा करे ।
सम्यग्दृष्टि शान्त साधक को मोक्ष प्रदान करने में कुशल इस धर्म को अच्छी तरह जानकर उपसर्गों को सहन करता हुआ मोक्षप्राप्तिपर्यन्त संयम का अनुष्ठान करे ।
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व्याख्या
उपसर्गों पर विजय, धर्माचरण : मोक्षप्राप्ति तक
तीसरे अध्ययन की समाप्ति में शास्त्रकार ने इन दो गाथाओं की पुनरावृत्ति करके भी मोक्षप्राप्तिपर्यन्त उपसर्गों पर विजय एवं धर्म का भलीभाँति निरीक्षणपरीक्षण करके धर्माचरण की बात कूट-कूट कर भर दी है । २१वीं गाथा में पूर्ववत् दुर्गति में गिरते हुए जीव को धारण करने वाले श्रुतचारित्ररूप या मूल- उत्तरगुणरूप धर्म को आचार्य आदि के उपदेश से ग्रहण - स्वीकार करके अग्लानसाधु प्रसन्नचित्त से स्वयं को कृतकृत्य एवं धन्य मानता हुआ रोगी साधु की सेवा करे। ऐसा करते समय परीषह-उपसर्गों से न घबराए । उत्पन्न केवल - दिव्यज्ञान भव्यजीवोद्धारक भगवान् महावीर स्वामी ने इस धर्म को कहा था ।
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