________________
उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन--चतुर्थ उद्देशक
४६४ उड्ढं अहे वा तिरियं शब्द क्षेत्र का सूचक है। संसार में मुख्यतया दो प्रकार के प्राणी होते हैं-त्रस और स्थावर । जो प्राणी स्वयं चलते-फिरते स्थूल आँखों से दिखाई देते हैं---अथवा जो भय पाते हैं, वे त्रस हैं। और जो प्राणी चलते-फिरते नहीं, किन्तु सदा स्थित रहते हैं तथा एक ही इन्द्रिय - स्पर्शेन्द्रिय से युक्त सुषुप्त चेतना वाले हैं, वे स्थावर कहलातेहैं । त्रस द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक हैं। उनमें से पंचेन्द्रिय जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प एवं भुजपरिसर्प, फिर देवता, नारक और तिर्यञ्च भी हैं, तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक, गर्भज और सम्मूच्छिम, आदि भेद भी होते हैं। स्थावर प्राणियों के पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति ये ५ भेद हैं, फिर इनके सूक्ष्म-बादर, पर्याप्तक-अपर्याप्तक ये भेद भी होते हैं। यहाँ त्रस और स्थाबर जीवों की हिंसा का निषेध करके द्रव्यप्राणातिपात का ग्रहण किया गया है। तथा 'सम्वत्थ' शब्द से सर्वकाल में अर्थात् सभी अवस्थाओं में किसी भी प्राणी की हिंसा न करनी चाहिए, यह कहकर काल और भाव के भंद से युक्त प्राणातिपात का ग्रहण किया गया है। इस प्रकार १४ ही जीवस्थानों में तीन करण
और तीन योग (करना-कराना-अनुमोदन, तथा मन-वचन-काया) से प्राणातिपात से निवृत्त हो जाना चाहिए।
'संतिनिव्वाणमाहियं' पूर्वगाथा तथा इस गाथा के द्वारा प्राणातिपातविरति आदि पाँचों मूलगुणों--महाव्रतों तथा समिति आदि उत्तरगुणों का फल नाम लेकर बताने के लिए शास्त्रकार इस गाथा के चौथे चरण में कहते हैं कि शान्ति ही निर्वाणपद कहा गया है। शान्ति का अर्थ है---कर्मरूपी दाह का उपशमन-शान्त हो जाना। वह समस्त दुःखों की निवृत्तिस्वरूप है। अतः चरणकरण (मूलगुणउत्तरगुण) का आचरण करने वाले साधक को वह शान्तिरूपी निर्वाणपद की प्राप्ति अवश्य होती है, ऐसा कहा गया है।
मूल पाठ १ इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥२१॥ संखाय पेसलं धम्मं, दिमिं परिनिव्वुडे । उवसग्गे नियामित्ता, आमोक्खाय परिव्वएज्जासि ॥२२॥
त्ति बेमि॥
१. ये दोनों गाथाएँ इसी अध्ययन के तीसरे उद्देशक की समाप्ति में दी गयी हैं।
अतः ये दोनों दुबारा ज्यों की त्यों यहाँ प्रस्तुत की गयी हैं। -सम्पादक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org