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________________ ४६८ सूत्रकृतांग सूत्र सुव्वते समिते चरे–यहाँ साधु के मूलगुणों और उत्तरगुणों, दोनों का पालन --आचरण करना बताकर शास्त्रकार ने जिन व्रतों में साधक फिसल जाता है, उनके विषय में संकेत किया है --मुसावायं च वज्जिज्जा, अदिन्नादाणं च बोसिरे । अर्थात् वह साधक मृषावाद और अदत्तादान दोनों से अच्छी तरह दूर रहे। इन दोनों से दूर रहेगा तथा महाव्रतों और समितियों का पालन भलीभाँति करेगा, तभी वह साधक उपसर्गों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उन्हें छोड़ेगा, अर्थात् आने वाले उपसर्गों के वश में नहीं होगा, उन्हें जीत लेगा। यहाँ बीच में 'च' शब्द पड़ा है, उससे मैथुनविरमण महाव्रत तथा अपरिग्रह महाव्रत का भी ग्रहण किया जा सकता है। अर्थात् साधु अपना कल्याण समझकर पंच महाव्रतों एवं समितियों के पालन में दत्तचित्त रहे । मल पाठ उड ढमहे तिरियं वा, जे केई तसथावरा । सव्वत्थ विति कुज्जा, संति निव्वाणमाहियं ।।२०।। संस्कृत छाया ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् ये केचित् त्रसस्थावराः । सर्वत्र विरति कुर्यात् शान्तिनिर्वाणमाख्यातम् ।।२०।। अन्वयार्थ (उड्ढं) ऊर्ध्व-ऊपर, (अहे) नीचे तथा (तिरियं) तिरछे (जे केई तसथावरा) जो कोई भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, (सम्वत्थ) सर्वकाल में (विरति) उनकी हिंसा से विरति-निवृत्ति (कुज्जा) करनी चाहिए। (संति निव्वाणं) ऐसा करने से शान्तिरूपी निर्वाणपद की प्राप्ति (आहियं) कही गई है। भावार्थ __ ऊपर, नीचे अथवा तिरछे लोक में जो त्रस या स्थावर जीव निवास करते हैं, उनकी हिंसा से सर्वदा निवृत्त रहना चाहिए। ऐसा करने से साधक को परमशान्तिरूपी निर्वाणपद की प्राप्ति होती है, ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है। याख्या सर्वत्र सर्वदा अहिंसा पालन से ही निर्वाणप्राप्ति पूर्वगाथा में मृपावाद, अदत्तादान और उपलक्षण से मैथुन तथा परिग्रह से विरति की प्रेरणा दी गई थी, इस गाथा में शास्त्रकार हिंसात्याग की प्रेरणा दे रहे हैं—'उड्ढमहे..."संति निव्वाणमाहियं ।' ____ आशय यह है कि ऊपर के क्षेत्र में हो, या नीचे के क्षेत्र में हो, या तिरछे क्षेत्र में हो, जो भी जीव हो, उसकी हिंसा से साधक को निवृत्त होना चाहिए । यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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