SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 539
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६४ सूत्रकृतांग सूत्र नहीं जाता। वे धर्मरूप प्रधान पुरुषार्थ में ही अपना सारा जीवन व्यतीत कर देते हैं। जिन साधकों का समय धर्मपुरुषार्थ में व्यतीत होता है, वे धर्म में इतने अभ्यस्त होते हैं कि विघ्नबाधाएँ या विपत्तियाँ आने पर भी वे धर्माचरण छोड़ते नहीं, बल्कि परीषह और उपसर्ग को भी धीरतापूर्वक सहन करते हैं। क्योंकि वे बाल्यकाल से ही विषयभोगों का संसर्ग न करते हुए तपस्या में प्रवृत्त रह चुके हैं, इसलिए कर्मविदारण करने में समर्थ धीर हैं। चाहे कितने ही संकट में पड़े हों, अथवा उनके सामने स्नेहबन्धन में फंसाने के कितने ही अनुकूल उपसर्ग हों, किन्तु स्नेहबन्धन से उन्मुक्त वे साधक असंयमी जीवन की कदापि इच्छा नहीं करते। अथवा वे जीवन-मरण में नि:स्पृह रहकर संयमानुष्ठान में दत्तचित्त रहते हैं । यही बात शास्त्रकार ने गाथा के उत्तरार्ध में कह दी है-'ते धीरा बंधणम्मुक्का, नावखंति जीवियं ।' मूल पाठ जहा नई वेयरणी दुत्तरा इह संमता । एवं लोगंसि नारीओ दुरुत्तरा अमईमया ॥१६॥ संस्कृत छाया यथा नदी वैतरणी दुस्तरेह सम्मता। एवं लोके नार्यो दुस्तरा अमतिमता ।।१६।। अन्वयार्थ (जहा) जैसे (इह) इस लोक में (वेयरणी नई) वैतरणी नदी (दुत्तरा संमता) दुस्तर मानी गयी है, (एवं) इसी तरह (लोगंसि) लोक में (नारीओ) स्त्रियाँ (अमईमया) अविवेकी मनुष्य द्वारा (दुरुत्तरा) दुस्तर मानी गयी हैं। भावार्थ जैसे इस लोक में अत्यन्त वेग वाली वैतरणी नदी को पार करना अत्यन्त दुष्कर माना गया है, वैसे ही इस संसार में कामिनियाँ अविवेकी साधक पुरुष के लिए अत्यन्त दुस्तर मानी गयी हैं। व्याख्या अविवेकी साधक के लिए स्त्रीपरीषह दुर्लध्य इस गाथा में एक अनुकूल उपसर्ग-स्त्रीपरीषह को साधक के लिए पार करना दुष्कर बताया है----'एवं लोगंसि नारीओ दुरुत्तरा अमईमया ।' वास्तव में मोक्षार्थी साधक के लिए स्त्रीमोहरूप उपसर्ग पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है । बड़े-बड़े पहुंचे हुए साधक भी स्त्रीमोह पर विजय पाने में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy