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उपसर्ग परिज्ञा : तृतीय अध्ययन---चतुर्थ उद्देशक
४६३ _ निष्कर्ष यह है कि उन कामासक्त जीवों को समय रहते चेत जाना चाहिए, जिससे बाद में पछताना न पड़े।
मूल पाठ जेहि काले परक्कंतं, न पच्छा परितप्पए । ते धीरा बंधणुम्मुक्का नावखंति जीविअं ॥१५।।
संस्कृत छाया यैः काले पराक्रान्तं, न पश्चात् परितप्यन्ते । ते धीरा बन्धनोन्मुक्ताः, नावकांक्षन्ति जीवितम् ।।१५।।
अन्वयार्थ (जेहि) जिन साधकों ने (काले) धर्मोपार्जनकाल में (परक्कंत) धर्माचरण में पुरुषार्थ किया है, (ते) वे (पच्छा) बाद में----यौवन बीत जाने पर (न परितप्पए) पश्चात्ताप नहीं करते हैं । (बंधणुम्मुक्का) बन्धन से छूटे हुए (ते धीरा) वे धीर पुरुष (जीविअं) असंयमी जीवन की (नावकखंति) इच्छा नहीं करते हैं।
भावार्थ धर्मोपार्जन के समय में जिन पुरुषों ने धर्मोपार्जन किया है, वे वृद्धावस्था (पिछली उम्र) में पश्चात्ताप नहीं करते । बन्धन से उन्मुक्त वे धीर पुरुष असंयमी जीवन की इच्छा नहीं करते।
व्याख्या
___ समय पर चेतने वाले साधक बाद में पछताते नहीं पूर्व गाथा में बताया है कि भविष्य का विचार न करके केवल वर्तमान सुखों में ही रमण करने वाले लोग आयु क्षीण होने पर पछताते हैं और इस गाथा में इसके विपरीत जो समय रहते सावधान होकर धर्मोपार्जन करते हैं, वे बाद में पछताते नहीं, यह बताया गया है ।
आशय यह है कि जो साधक उत्तम पराक्रमी होने के कारण पहले से ही तप, संयम आदि का आचरण करते हैं, उन्हें यौवन ढल जाने पर और बुढ़ापा आने पर कभी पश्चात्ताप नहीं होता। वे मृत्युकाल के समय या वृद्धावस्था में क्यों पश्चात्ताप करेंगे, जिन साधकों ने धर्मोपार्जनकाल में आत्महितसम्पादन के लिए इन्द्रियविषयों और कषायों पर विजय करने में खूब पुरुषार्थ किया है।
काले परक्कंतं -काल-समय पर पराक्रम करने वाला। यद्यपि जो पुरुष विवेकसम्पन्न हैं, उनके लिए प्रायः सभी समय धर्मोपार्जन का काल है; क्योंकि उनके लिए धर्मोपार्जन ही मुख्य पुरुषार्थ है । वे जो भी प्रवृत्ति करेंगे, उसमें धर्म पुरुषार्थ को मुख्य रखकर ही करेंगे। इसलिए विवेकी साधकों का एक भी क्षण धर्मरहित
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