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________________ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-चतुर्थ उद्देशक मवाद बाहर निकालने के समान जो तथाकथित मतवादी मैथुनसेवन को निरवद्यनिर्दोष मानते हैं, वे स्त्रीपरीषह से हारे हुए हैं, शुभ अनुष्ठानों से कोसों दूर हैं, उनकी दृष्टि विपरीत है, वस्तुस्वरूप को ग्रहण करने वाली नहीं है । वे समस्त पापकर्मों में लिप्त होने के कारण अनार्य हैं तथा इस प्रकार की आध्यात्मिक जगत् से सर्वथा विपरीत मिथ्यामान्यता को मानने और उसकी प्ररूपणा करने वाले व्यक्ति कामभोगों में इतने तीव्र आसक्त हैं, जितनी पूतना नामक डाकिनी बच्चों पर आसक्त रहती है । जैसे पूतना डाकिनी को रात-दिन स्तनपान करने वाले बच्चों के बिना चैन नहीं पड़ती, वैसे ही इन इच्छारूप एवं मदनरूप कामों में आसक्त काम के कीड़ों को भी बिलकुल चैन नहीं पड़ती। अथवा पूतना भेड़ का नाम है, वह अपने बच्चों पर अत्यधिक आसक्त रहती है इसी तरह वे आर्य कामभोगों अत्यासक्त रहते हैं। इस विषय में एक कहानी भी प्रसिद्ध है--- पशुओं में से किसमें अपनी सन्तान के प्रति अधिक स्नेह होता है ? इसको परीक्षा करने का एक बार एक व्यक्ति ने बीड़ा उठाया। उसने सब पशुओं के बच्चे किसी जलरहित कुए में रख दिये। अत: और तो सब बच्चों की माताएँ अपनेअपने बच्चों की रोने-चिल्लाने की आवाज सुनकर उस कुए के किनारे खड़ी-खड़ी रोने लगीं । किन्तु भेड़ अपने बच्चों के प्रेम में अंधी होकर मृत्यु की परवाह न करके कुए में कूद पड़ी। अतः परीक्षक ने निश्चय कर लिया कि समस्त पशुओं में से भेड़ का अपने बच्चों के प्रति अधिक स्नेह होता है। इसी तरह पूर्वोक्त भ्रान्त मान्यता वालों का कामभोग में अत्यधिक मोह होता है । अमली गाथा में उन कामासक्त पुरुषों की मनोवृत्ति और उसके परिणाम के विषय में शास्त्रकार कहते हैं मूल पाठ अणागयमपस्संता, पच्चुप्पन्नगवेसगा ते पच्छा परितप्पंति, खीणे आउंमि जोव्वणे ॥१४॥ संस्कृत छाया अनागतमपश्यन्तः प्रत्युत्पन्नगवेषका: । ते पश्चात् परितप्यन्ते क्षीणे आयुषि यौवने ।।१४।। ___ अन्वयार्थ (अणागयमपस्संता) भविष्य में होने वाले दुःख को न देखते हुए (पच्चुप्पन्नगवेसगा) जो लोग वर्तमान सुख की खोज में रत रहते हैं, (ते) वे (पच्छा) पीछे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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