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________________ ४६० सूत्रकृतांग सूत्र मूलं चैतदधर्मस्य भव-भावप्रवर्धनम् तस्माद् विषान्नवत् त्याज्यमिदं पापमनिच्छता ॥२॥ अर्थात् --- शास्त्र में महर्षियों ने मैथुन को प्राणियों का विघातक बताया है। जैसे नली के भीतर तपे हुए अत्यन्त गर्म अग्निकणों को डालने से उसके अन्दर की चीजों का तत्काल नाश हो जाता है, वैसे ही मैथुनसेवन से स्त्री की योनि में स्थित सजीव शुक्राणुओं का नाश हो जाता है, आत्मिक शक्तियों का तो शीघ्र ही खात्मा हो जाता है । मैथुनसेवन अधर्म का मूल है, संसार (जन्म-मरणरूप) को बढ़ाने वाला है । अतः पाप की इच्छा न करने वाले पुरुष को विषाक्त अन्न की तरह इसका त्याग कर देना चाहिए। ___ अत: राग होने पर ही उत्पन्न होने वाले, समस्त दोषों के स्थान एवं संसारवर्द्धक मैथुनसेवन फिर वह स्त्री-पुरुष की इच्छाजन्य हो या अनिच्छाजन्य हो, कथमपि निर्दोष नहीं हो सकता। बच्चों पर आसक्त पूतना की तरह ये कामासक्त अनार्य ! तेरहवीं गाथा में पूर्वीक्त रतिप्राथिनी स्त्रीसहवास की घोरअनर्थकर एवं भ्रान्तमान्यता वाले तथाकथित मतवादी कैसे हैं ? इसे बताते हैं--'एवमेगे उ पासत्था पूयणा इव तरुणए।'' आशय यह है कि फोड़े को फोड़कर उसका -- १. शीलांकाचार्य का संकेत बौद्धविशेषों के प्रति है, जो नीलवस्त्रधारी आदि होते थे। क्योंकि सूत्रकृतांगसूत्र में ही आगे शाक्य (बौद्धविशेष) साधुओं के लिए इस प्रकार का दुर्ध्यान करने का उल्लेख किया है। निम्नोक्त गाथाएँ प्रमाण के लिए प्रस्तुत हैं ते अ बीओदगं चेव तमुद्दिस्सा य जं कडं । भोच्चा झाणं झियायंति, अखेयन्ना असमाहिया । सूत्र० १११२६ मणुग्णं भोयणं भुज्जे".......... । मंसनिवति काण्डं सेवइ दंतिक्कगंति धगिमेया। इय च चइउणारंभं, परववएसा कुणइ बालो ॥ सू० ११।२७-२८ इसका अर्थ शीलांकाचार्य ने इस प्रकार किया है-"वे शाक्य आदि सचित्त जलपान, बीज (सचित्त) तथा उद्दिष्ट भोजन करके आर्तध्यान करते हैं। वे धर्म के अवेदज्ञ तथा असमाधिवान हैं। शाक्यभिक्षु मनोज्ञ आहार, वसति, शय्या, आसन आदि राग के कारणों का ध्यान करते हैं-~-उपभोग करते हैं। संज्ञान्तर क्षमाश्रमण के कारण वे इसे निर्दोष मानते हैं। जैसे ढंक, कंक, कुलल, मंगु आदि पक्षी मत्स्य-गवेषणा के लिए कलुषतायुक्त ध्यान करते हैं, वैसे ही ये मिथ्यादृष्टि अनार्यसाधु दुष्टध्यान करते हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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