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________________ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन- - चतुर्थ उद्देशक जिनशासन - पराङमुख कहलाते हैं । जिन शब्द यहाँ किसी व्यक्तिविशेष के अर्थ में नहीं है । जो भी राग-द्वेषविजेता हो, उसका नाम कुछ भी हो, वह जिन है । इससे पूर्व की वीं गाथा में उल्लिखित प्राणातिपात आदि पाँच पापों में प्रवृत्त लोग भी इस गाथा में उक्त पाँच विशेषणों वाले हैं। यानी पूर्व गाथा से ये सम्बद्ध हैं । इस गाथा में पाँच विशेषणों से युक्त पार्श्वस्य आदि के साथ जो 'एगे' शब्द है, उसका अर्थ शीलांकाचार्य ( वृत्तिकार ) ने किया है - एके अर्थात् प्राणातिपात आदि में प्रवर्तमान रहने वाले कोई बौद्धविशेष नीलवस्त्रधारी' या नाथवादी मण्डल में प्रविष्ट होकर रहने वाले शैवविशेष, जो उत्तम अनुष्ठान से दूर रहने के कारण पार्श्वस्थ हैं या अवसन्न और कुशील आदि स्वयूथिक पार्श्वस्थ हैं । अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वे पार्श्वस्थ, अनार्य, स्त्रीवशंगत, बाल एवं जिनशासनविमुख साधक आगे की तीन गाथाओं ( १०वीं ११वीं एवं १२वीं) में तीन दृष्टान्त देते हैं। तीनों दृष्टान्तों द्वारा उन्होंने रतिप्रार्थना करने वाली कामिनी के साथ समागम करने को निर्दोष सिद्ध करने की कोशिश की है । वे तीनों दृष्टान्त क्रमश: इस प्रकार हैं १ - जैसे किसी के शरीर में फुंसी या फोड़ा हो जाता है तो उसकी पीड़ा को शान्त करने के लिए वह फोड़े-फुंसी को थोड़ी देर तक दबाकर उसका मवाद व दूषित रक्त निकाल देता है, जिससे थोड़ी देर में ही उसे सुख-शान्ति हो जाती है । ऐसा करने में कोई दोष नहीं माना जाता, वैसे ही कोई कामिनी अपनी कामपीड़ा शान्त करने के लिए समागम की प्रार्थना करती है, तो उस स्त्री के साथ समागम करके फोड़े आदि को फोड़कर शान्ति प्राप्त करने के समान कामपीड़ा शान्त करता है, तो इसमें क्या दोष हो सकता है ? बलात्कार करना दोष है, किन्तु स्वत: सहवास-प्रार्थना करने वाली ललना के साथ समागम करके पीड़ा शान्त करने में कोई दोष नहीं हो सकता । यह किन्हीं अज्ञानियों का मत है । ४८७ २ - समागम की प्रार्थना करने वाली किसी युवती के साथ समागम करने से यदि किसी को कोई पीड़ा होती तो अवश्य ही इस कार्य में दोष होता, परन्तु इस प्रवृत्ति में किसी को जरा भी पीड़ा नहीं होती । जैसे मन्धादन यानी भेड़ घुटनों को पानी में झुकाकर पानी को गंदा किये या हिलाये बिना ही स्थिरता पूर्वक धीरे से १. वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने यह मान्यता नीलवस्त्र वाले आदि बौद्धविशेषों की मानी है । बौद्धों में कौन-सा सम्प्रदाय नीले वस्त्र पहनता था, यह अज्ञात है । सम्भव है, कोई वज्रयान आदि बौद्धशाखा रही हो। जैसे- - "एके इति बौद्धविशेषाः नीलपटादयो नाथवादिकमण्डल प्रविष्टा वा शैवविशेषा: । " - सूत्रकृतांग वृत्ति १ ३ ४ ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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