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________________ ४८८ सूत्रकृतांग सूत्र चुपचाप पानी पीकर अपनी तृप्ति कर लेती है। उसकी इस क्रिया से किसी जीव को पीड़ा नहीं होती, इसी तरह सम्भोग की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ समागम करने से किसी दूसरे जीव को कोई पीड़ा नहीं होती और स्वतृप्ति भी हो जाती है, इसलिए इस कार्य में भी कोई दोष कैसे हो सकता है ? मतलब यह है कि जैसे भेड़ का दूसरे को पीड़ा न देते हुए जल पीना निर्दोष है, वैसे ही दूसरे को पीड़ा न देने वाला मैथुन एक-दूसरे का सुखोत्पादक मैथुन है, वह निर्दोष है। यह दूसरे अज्ञानी की मान्यता है। ३-इसी तरह तीसरे की मान्यता है कि जैसे कपिजल नामक चिड़िया केवल अपनी चोंच के अग्रभाग के सिवाय, दूसरे अंगों द्वारा जलाशय के जल को स्पर्श न करती हुई, आकाश में उड़ती हुई, जल का पान कर लेती है । ऐसा करते समय वह न तो जल को हिला-डुलाकर कष्ट देती है, और न जलाश्रित किसी जीव को कष्ट देती है, इसलिए उसका जलपान निर्दोष है; वैसे ही किसी नारी द्वारा समागम की प्रार्थना करने पर कोई पुरुष राग-द्वषरहित बुद्धि से उस स्त्री के शरीर को कुशा से ढककर उसके शरीर को न छूते हुए पुत्रोत्पत्ति के निमित्त से, (काम के निमित्त से नहीं) शास्त्रोक्त विधान के अनुसार ऋतुकाल में समागम करता है तो उसमें उसको कोई जीवघातरूप दोष नहीं होता । उसका तथारूप मैथुनसेवन निर्दोष ही है। जैसा कि उनके धर्मशास्त्र में कहा है धर्मार्थ पुत्रकामस्य स्वदारेस्वधिकारिणः । ऋतुकाले विधानेन दोषस्तत्र न विद्यते ॥ अर्थात-धर्म रक्षा के लिए, पुत्रोत्पत्ति के निमित्त, अपनी स्त्री में अधिकार रखने वाले पुरुष के लिए ऋतुकाल में स्त्री-समागम का शास्त्रीय विधान होने से इसमें कोई दोष नहीं है। तीनों दृष्टान्तों में तथाकथित बौद्धों की उक्त तीनों मान्यताओं का मूलस्वर एक ही है । वह है-'रतिप्राथिनी स्त्री के साथ समागम निर्दोष है ।' यही कारण है कि प्रत्येक दृष्टान्त के उपसंहार में गाथा में ‘एवं विन्नवणित्थीसु दोसो तत्थ कओ सिआ ?' इसी वाक्य को दुहराया गया है। किन्तु यह मान्यता भ्रान्त है। उक्त भ्रान्त मान्यता वालों द्वारा प्रयुक्त तीनों दृष्टान्तों का नियुक्तिकार तीन गाथाओं से निराकरण करते हैं जह णाम मंडलग्गेण सिरं छत्तण कस्सइ मणुस्तो। अच्छेज्ज पराहुत्तो किं नाम ततो ण घिप्पेज्जा ? ॥५३॥ जह वा विसगंडूसं कोई घत्त ण नाम तुहिक्को । अण्णेण अदीसंतो कि नाम ततो न व मरेज्जा ! ॥५४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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