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सूत्रकृतांग सूत्र कामासक्त लोगों के लिए ५ विशेषण नौवीं गाथा में प्रयुक्त करते हैं-'पासस्था, अणारिया, इत्थीवसंगया, बाला और जिणसासणपरम्मुहा।' इन सबका अर्थ क्रमश: समझ लेना चाहिए।
पासत्था - पार्वे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः, जो मूल सम्प्रदाय या तीर्थ में न रहकर पार्श्व-- यानी पड़ौसी सम्प्रदाय या तीर्थ में रहते हों, उन्हें पार्श्वस्थ कहा जाता है। यहाँ पार्श्वस्थों में आचार्य शीलांक ने बौद्धों को भी सम्मिलित किया है। ये पार्श्वस्थ कुशीलसेवन तथा स्त्री-परीषह से पराजित रहते थे। इसलिए पासत्थ का एक रूप पाशस्थ भी होता है, यानी जो स्त्री आदि के मोहपाश में फंसे हुए हों। पार्श्वस्थ की अपेक्षा पाशस्थ अर्थ यहाँ अधिक संगत है।
अणारिया--अनार्य कर्म करने वाले अनार्य कहलाते हैं। इन पूर्वोक्त तथाकथित बौद्धों को ८वीं गाथा में हिंसा, असत्य, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह में प्रवृत्त होने वाले बताया गया था। ये सभी कर्म अनार्य कर्म कहलाते हैं, इसलिए इन कर्मों के कर्ता तथाकथित बौद्धविशेषों को अनार्य कहा है।
इत्थीवसंगया' - जो युवती कामिनियों की गुलामी करते हों, उनके आज्ञावर्ती रहते हों, उनके इशारे पर नाचते हों, उन्हें स्त्रीवशंगत कहते हैं ।
बाला-- बाल अज्ञानी को कहते हैं। अध्यात्मशास्त्र में बाल वह है, जो बात-बात में राग, द्वेष, कषाय, मोह आदि से भड़क उठते हों, जो हिंसा आदि पापकर्म करने की नादानी करके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हों, जो हिताहित के विचार से शून्य हों।
जिणसासणपरम्मुहा...-- रागद्वेष-विजेता जिन कहलाते हैं। उनके शासन का अर्थ है- उनकी आज्ञा-कषाय, मोह, रागद्वेष को उपशान्त करने की आज्ञा, उससे जो पराङ मुख- विमुख हैं, संसाराभिसक्त हैं एवं जैनमार्ग से द्वेष करने वाले हैं, वे
१. स्त्रियों के वे कितने अधिक चाटुकार थे, इसका नमूना उन्हीं के ग्रन्थ में देखिये
प्रियादर्शन मेवाऽस्तु किमन्यदर्शनान्तरैः ।
प्राप्यते येन निर्वाणं सरागेणाऽपि चेतसा ॥ -- "मुझे प्रिया का दर्शन होना चाहिए, फिर अन्य दर्शनों से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि प्रिया के दर्शन से सरागचित्त के द्वारा भी निर्वाणसुख प्राप्त होता है।"
भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य ।
ब्रह्मावा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ ---इस प्रकार जिन शब्द यहाँ व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक है, जिसके रागादि विकार नष्ट हो गये हों, वे फिर किसी भी नाम से पुकारे जाते हों, वे नमस्करणीय -वन्दनीय हैं ।
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