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________________ ४८० सूत्रकृतांग सूत्र कपोलकल्पना है । अतः सुविहित साधु को ऐसे मिथ्यादृष्टियों के भ्रान्तिजनक वचनों के बहकावे में आकर स्वधर्म और मोक्षमार्ग का त्याग नहीं करना चाहिए, ऐसी भ्रान्तियों को मोक्षमार्ग में विघ्नरूप उपसर्ग मानकर उनसे बचना चाहिए। यही इस गाथा का सारांश है। मूल पाठ मा एयं अवमन्नंता, अप्पेणं लुपहा बहुं । एतस्स उ अमोक्खाए, अओहारिव्व जूरह ॥७॥ संस्कृत छाया मैनमवमन्यमाना अल्पेन लुम्पथ बहु । एतस्य त्वमोक्षे अयोहारीव जूरयथ ॥७॥ ___ अन्वयार्थ (एयं) इस जिनमार्ग का (अवमन्नंता) तिरस्कार करके-ठुकराकर तुम लोग (अप्पेणं) तुच्छ-अल्प विषयसुख के लोभ से (बहु) अतिमूल्यवान् मोक्षसुख को (मा) मत (लुपह) बिगाड़ो। (एतस्स) 'सुख से सुख प्राप्त होता है, इस मिथ्यापक्ष को (अमोक्खाए) नहीं छोड़ने पर (अओहारिव्व) सोना छोड़कर लोहा लेने वाले वाणिक् की तरह (जूरह) पछताओगे। भावार्थ 'सुख से ही सुख होता है,' इस मिथ्यापक्ष की भ्रान्ति में पड़कर वीतराग प्ररूपित उत्तमधर्म का परित्याग करने वाले अन्यदर्शनी के कल्याणार्थ शास्त्रकार उपदेश देते हैं - "तुम लोग इस जिनशासन (जिनधर्म) को ठकराकर तुच्छ विषयसख के लोभ में पड़कर अतिदुर्लभ मोक्षसुख को हाथ से मत खोओ। 'सुख से ही सुख होता है,' इस भ्रान्तियुक्त असत्पक्ष को नहीं छोड़ोगे तो उसी तरह पछताओगे, जैसे सोना आदि बहुमूल्य धातु छोड़कर केवल लोहा खरीदने वाला बनिया पश्चात्ताप करता है।" व्याख्या भ्रान्त मान्यता के शिकार लोगों को उपदेश 'यहाँ सुखभोग से ही आगे सुख मिलता है, यह मान्यता कितनी भ्रान्त और आपातरमणीय है, परिणाम में कितनी दुःखदायिनी, विषम एवं भवभ्रमण की कारण है, इसका विवेचन पिछली गाथा में बताकर अब शास्त्रकार इस गाथा में इस भ्रान्त मान्यता के शिकार लोगों को अनुकम्पा बुद्धि से प्रेरित होकर उपदेश देते हैं"बन्धुओ ! तुम लोग मिथ्यापूर्वाग्रहवश वीतरागप्ररूपित उत्तम मोक्षमार्ग या पवित्र जिन-सिद्धान्त का तिरस्कार करके सिर्फ तुच्छ व क्षणिक विषयसुखों के प्रलोभन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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