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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन - चतुर्थ उद्देशक
पड़कर अत्यन्त दुर्लभ जो मोक्षसुख मिल सकता है, उसका अवसर मत गँवाओ । मोक्षसुख की बाजी अभी तक तुम्हारे हाथ में है । अभी कुछ नहीं बिगड़ा, थोड़ी-सी भूल हुई है, उसे सुधार लो और अल्पकालिक वैषयिकसुखों की मृगमरीचिका को छोड़कर मोक्षसुख के लिए पुरुषार्थ करो। इससे तुम्हें भविष्य में मोक्षसुख ही नहीं, इस लोक में भी धर्मपालन से सातावेदनीय के फलस्वरूप स्वाधीनसुख प्राप्त होगा । दोनों लोक सुधर जाएँगे । अन्यथा, उक्त मिथ्यामत की पूँछ पकड़कर चलोगे और अपने पकड़े हुए झूठे पक्ष को नहीं छोड़ोगे तो तुम्हारी भी हालत उस बनिये की सी होगी, जो लोहे का भार लेकर दूर से आ रहा था, किन्तु रास्ते में सोना और चांदी मिलने पर हठाग्रहवश उन्हें इसलिए नहीं लिया, कि मैं इतनी दूर से इस लोहे को लाया हूँ, इसे कैसे छोड़ दूं ? किन्तु जब घर पहुँचा तो लोहे का दाम कम पाकर खूब रोया-पीटा, पछताया । इसी तरह तुम्हें बाद में पछताना न पड़े, इसलिए हम तुम्हें सावधान करते हैं कि इस गलत मान्यता के चक्कर में पड़कर अपना जीवन बर्बाद मत करो। देखो, मनोज्ञ आहारादि करने से काम की वृद्धि होती है, और कामवृद्धि होने पर चित्त स्थिर नहीं रह सकता । अतः मनोज्ञ आहार करने वाले के चित्त में समाधि नहीं रह सकती । उससे दुःखदायक कटु परिणाम भोगने पड़ते हैं ।
मूल पाठ
पाणाइवाते वट्टंता मुसावादे असंजता । अन्नदाता, मेहुणे य परिग्गहे ||८||
संस्कृत छाया प्राणातिपाते वर्तमानाः मृषावादेऽसंयताः । अदत्तादाने वर्तमानाः, मैथुने च परिग्रहे || 5 || अन्वयार्थ
(पाणा इवाते) आप लोग जीवहिंसा में ( वट्टता) प्रवृत्त रहते हैं, ( मुसावादे ) मृषावाद में, (अदिन्नादाणे) अदत्तादान - चोरी में, (मेहुणे य परिग्गहे) मैथुन और परिग्रह में भी ( वट्टता) प्रवृत्त रहते हैं । इस कारण आप लोग ( असंजता ) असंयमी हैं, संयमी नहीं । "
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भावार्थ
'सुख भोग से भविष्य में सुख मिलता है' इस मिथ्या सिद्धान्त के
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१. तथाकथित बौद्धों पर यह जो आरोपण है, वह ऐतिहासिक तथ्य की दृष्टि से यथार्थ प्रतीत होता है । क्योंकि तथागत बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्धधर्म की एक शाखा के भिक्षुओं में यह आचारशैथिल्य आ गया था, वे अत्यन्त असंयत गये थे । थेरगाथा में उसकी प्रतिध्वनि मिलती है ।
-सम्पादक
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