________________
उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-चतुर्थ उद्देशक
४७६
पूर्वक की हुई साधना, संयमपालन, परीषहसहन, तप, ध्यान आदि सब मोक्षसुख के साधन हैं । परमार्थचिन्तक महापुरुष के लिए कष्ट भी सुख का कारण है, दु:खदायक नहीं। कहा भी है
तणसंथारनिविष्णोवि मुनिवरो भट्ट रागमयमोहो ।
जं पावइ मुत्तिसुहं, कत्तो तं चक्कवट्टी वि ? अर्थात्---राग, मद और मोह से रहित मुनि तृण की शय्या पर सोया हुआ भी जिस परमानन्दरूप मुक्तिसुख का अनुभव करता है, वह चक्रवर्ती के भी भाग्य में नसीब कहाँ ?
दुःखं दुष्कृतसंक्षयाय महतां क्षान्तेः पदं वैरिणः, कायस्याशुचिता विरागपदवी संवेगहेतुर्जरा । सर्वत्याग महोत्सवाय मरणं, जातिः सुहत्प्रीतये,
संपद्भिः परिपूरितं जगदिदं स्थानं विपत्त : कुतः ? अर्थात्-दुःख होने से महान व्यक्ति दुःखित नहीं होते । वे यह जानकर सुखी होते हैं कि यह दुःख आया है तो हमारे दुष्कर्मों के क्षय के लिए आया है । क्षमा करने से वैर की शान्ति है, शरीर की मलिनता वैराग्य की उत्पत्ति के लिए है, बुढ़ापा वैराग्य संवेग का कारण है तथा मरण समस्त वस्तुओं के सर्वत्यागरूप महोत्सव के लिए है । अतः ज्ञानियों की दृष्टि में यह जगत् सुखसमृद्धि, स्वर्गसामग्री एवं सारभूत तत्त्वों से भरा हुआ है, इसमें दुःख को स्थान ही कहाँ है ?
बौद्धों का यह तर्क भी सर्वथा एकान्त रूप से यथार्थ नहीं है कि कारण के अनुरूप ही कार्य होता है। कभी-कभी कारण के विपरीत भी कार्य देखा जाता है। जैसे सींग से शर नामक वनस्पति की उत्पत्ति होती है, गोबर से बिच्छु पैदा होता हैं, गाय और भेड़ के बालों से दूब उत्पन्न होती है। ये सब कारणों से विपरीत कार्यों की उत्पत्ति के नमूने हैं। इसलिए सुख से एकान्तरूप से सुख की ही उत्पत्ति होती है, यह एकान्तिक कथन है।
एकान्तरूप से सुख से सुख की ही उत्पत्ति मानने पर विचित्र संसार का होना नहीं बन सकता; क्योंकि स्वर्ग में निवास करने वाले जो जीव सदा सुख का ही उपभोग किया करते हैं, उनकी उत्पत्ति सुखभोग के कारण फिर स्वर्ग में ही होगी, तथा नरक में रहने वाले जीवों की उत्पत्ति दुःखभोग के कारण फिर नरक में ही होगी। इस प्रकार भिन्न-भिन्न गतियो में जाने के कारण जो जगत् की विचित्रता होती है, वह नहीं हो सकेगी। परन्तु यह शास्त्र एवं सिद्धान्त से सम्मत नहीं और न ही अभीष्ट है।
निष्कर्ष यह है कि यहाँ सुख भोग करने से परलोक में भी सुख मिलता है, और अन्त में मोक्षसुख भी मिलता है, यह वैषयिकसुखग्रस्त भवाभिनन्दी जीवों की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org