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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-चतुर्थ उद्देशक
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कैसे गाफिल हो जाता है, किस-किस प्रकार की भ्रान्ति में डालने वाले उपसर्ग आते हैं और साधक उनके प्रवाह में कैसे बह जाता है ? इन बातों का संक्षिप्त दिग्दर्शन इस उद्देशक में कराया गया है ।
इस गाथा में बताया गया है कि शीत-उदक के सेवन से प्राचीन काल के कई तपोधनी महापुरुषों को मोक्ष हो गया था, इस प्रकार की अफवाहें परमार्थ को न जानने वाले अज्ञानियों द्वारा फैलाई जाती हैं और उनके चक्कर में कई कच्ची स्थूलबुद्धि के साधक आ जाते हैं तथा उसी भ्रान्ति के शिकार होकर शीतलजल सेवन में प्रवृत्त हो जाते हैं । उन अफवाह फैलाने वाले अज्ञ पुरुषों का कहना है कि प्राचीन काल में वल्कलचीरी नारायण ऋषि आदि महापुरुषों ने तपरूपी धन का अनुष्ठान किया था, तथा पंचाग्नि सेवन आदि तपश्चर्याओं के द्वारा देह को खूब तपाया था । उन महापुरुषों ने शीतल (कच्चे) जल तथा कंद-मूल, फल आदि का उपभोग करके सिद्धि प्राप्त कर ली थी।
इस बात को सुनकर तथा सत्य मानकर प्रासुक जल पीने से तथा स्नान न करने से घबराया हुआ कोई अपरिपक्व बुद्धि साधक संयमाचरण में दुःख महसूस करता है अथवा वह पूर्वापर का विचार किये बिना झटपट शीतलजल का उपयोग करने लग जाता है । वे मंदमति यह नहीं सोचते कि वे लोग तापस आदि के व्रतों का पालन करते थे। उन्हें किसी कारणवश जातिस्मरण ज्ञान होने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गई थी। और मौनीन्द्र सम्बन्धी भाव-संयम की प्राप्ति होने से उनके ज्ञानावरणीय आदि कर्म नष्ट हो गये थे। इस कारण से भरत चक्रवर्ती आदि के समान उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ था, किन्तु शीतल जल का उपभोग करने से नहीं ।
अपरिपक्वबुद्धि के साधक को इस प्रकार की भ्रान्ति के शिकार बनकर अपनी संयमचर्या में झटपट रद्दोबदल नहीं करना चाहिए, यह संकेत शास्त्रकार ने इस गाथा में ध्वनित कर दिया है ।
मल पाठ अभुंजिया नमी विदेही, रामगुत्ते य भुंजिआ । बाहुए उदगं भोच्चा तहा नारायणे रिसी ॥२॥ आसिले देविले चेव दीवायण महारिसी । पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि य ॥३॥ एते पुव्वं महापुरिसा आहिता इह संमता । भोच्चा बीओदगं सिद्धा इति मेयमणुस्सुअ ॥४॥
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