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________________ तृतीय अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक उपसर्ग-स्थैर्य अधिकार पूर्व उद्देशकों में अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन किया गया है। इन उपसर्गों के द्वारा कदाचित् साधु विचार-आचार से भ्रष्ट हो सकता है । अतः इस उद्देशक में उपसर्ग में स्थिरता का उपदेश दिया जाता है । इस सन्दर्भ में सर्वप्रथम गाथा यह है----- मूल पाठ आहंसु महापुरिसा पुव्वि तत्ततवोधणा । उदएण सिद्धिमावन्ना तत्थ मंदो विसीयति ॥१॥ संस्कृत छाया आहुमहापुरुषाः पूर्वं तप्ततपोधना: । उदकेन सिद्धिमापन्नास्तत्र मन्दो विषीदति ॥१॥ अन्वयार्थ (आहेसु) कोई अज्ञानी कहते हैं कि (पुब्वि) प्राचीनकाल में (तततवोधणा) तप करना ही जिनका धन है ऐसे तपेतपाए तपोधनी (महापुरिसा) महापुरुष (उदएण) कच्चेपानी का सेवन करके (सिद्धिमावन्ना) मुक्ति को प्राप्त हो गये थे। (मंदो) बुद्धिमंद अपरिपक्व बुद्धि का साधक यह सुनकर (तत्थ) शीत (कच्चे) जल के सेवन आदि में (विसीयति) प्रवृत्त हो जाता है। भावार्थ ___ कई अज्ञानी पुरुष कहते हैं कि प्राचीनकाल में तपेतपाए तपोधन महापुरुषों ने शीतल (कच्चे) जल का उपभोग करके सिद्धि प्राप्त की थी, अपरिपक्व बुद्धि का साधक यह सुनकर शीतल जल के सेवन आदि में प्रवृत्त हो जाता है। व्याख्या शीतोदकसेवन से मोक्षप्राप्ति : एक भ्रान्ति इस अध्ययन का नाम उपसर्गपरिज्ञा है। अत: उपसर्ग आने पर साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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