________________
८६६
उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन --तृतीय उद्देशक
संस्कृत छाया संख्याय पेशलं धर्म, दृष्टिमान् परिनिवृतः । उपसर्गान् नियम्य, आमोक्षाय परिव्रजेद् ॥२१।।
॥इति ब्रवीमि॥
अन्वयार्थ (दिट्ठिम) पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला दृष्टिसम्पन्न (परिनिव्वुडे) रागद्वेषरहित शान्त मुनि (पेसलं धम्म) उत्तम-सुन्दर धर्म को (संखाय) जानकर (उवसग्गे) उपसर्गों पर (नियामिता) नियंत्रण करके (आमोक्खाय) मोक्षप्राप्ति-पर्यन्त (परिव्वए) संयम का अनुष्ठान करे ।
भावार्थ पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता दृष्टिसम्पन्न रागद्वोषरहित शान्त मुनि इस उत्तम धर्म को जानकर मोक्षप्राप्ति तक संयम का अनुष्ठान करे।
व्याख्या
उपसर्गों को सहते हुए मोक्षपर्यन्त संयमपालन करे इस गाथा में इस उद्देशक का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार मुनि के लिए प्रेरणात्मक उपदेश देते हैं.-'संखाय पेसलं धम्मं . . . . . . आमोक्खाय परिव्वए।' तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिक जीवन में पुरुषार्थ के धर्म और मोक्ष दो सिरे हैं । धर्म से पुरुषार्थ की शुरूआत होती है, और मोक्ष पुरुषार्थ की अन्तिम मंजिल है । इसलिए इस गाथा में मुनि के लिए सर्वप्रथम यह निर्देश किया गया है कि वह वीतरागप्ररूपित मुनिधर्म को सभी पहलुओं से अंगोपांगसहित समझे, जाने, परखे
और प्रत्येक प्रवृत्ति में धर्म की दृष्टि रखे, यानी धर्मदृष्टि या पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को देखने की दृष्टि (सम्यग्दृष्टि) का अभ्यासी दृष्टिमान हो, तथा वीतरागतारूप धर्म की प्राप्ति के लिए राग-द्वेष से दूर, कषायनिवृत्त-शान्त हो। इस प्रकार धर्म को इस तरह रग-रग में रमा ले कि उपसर्गों पर नियमन करने में उसे किसी प्रकार की कठिनाई न हो। साथ ही अनुकूल और प्रतिकूल उपसगों से घबराकर अब तक आचरित किये हुए धर्म को न छोड़े, यहाँ तक कि जब तक समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष प्राप्त न हो जाय, तब तक उस धर्ममार्ग -संयम पर डटा रहे । 'इति' शब्द समाप्तिसूचक है, 'ब्रवीमि' का अर्थ पूर्ववत् है । ॥ तृतीय अध्ययन का तृतीय उद्देशक अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org