SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 513
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६८ सूत्रकृतांग सूत्र संस्कृत छाया इमञ्च धर्ममादाय काश्यपेन प्रवेदितम् । कुर्याद् भिक्षुग्लानस्य अग्लान्या समाहितः ।।२०।। अन्वयार्थ (कासवेण पवेइयं) काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी द्वारा कहे हुए (इमं च धम्ममादाय) इस धर्म को स्वीकार करके (समाहिए) प्रसन्नचित्त (भिक्ख) साधु (गिलाणस्स) रुग्ण साधु का (अगिलाए) ग्लानिरहित होकर (कुज्जा) वैयावृत्य--सेवा करे। भावार्थ काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा प्रतिपादित इस धर्म को अंगीकार करके प्रसन्नचित्त मुनि रोगी साधु की ग्लानिरहित होकर सेवा करे। व्याख्या रुग्ण साधु की सेवा : प्रसन्नचित्त मुनि का धर्म इस गाथा में शास्त्रकार ने स्वमत-पक्ष की स्थापना करते हुए रुग्ण साधु की सेवा-शुश्रूषा करना साधु का अनिवार्य धर्म बताया है। प्रश्न होता है कि साधु के इस सेवाधर्म का प्रतिपादन किसने और किसके लिए किया है ? इसका समाधान शास्त्रकार इसी गाथा के पूर्वार्द्ध में करते हैं-'इमं च धम्ममादाय कासवेण पवेइयं ।' धर्म का अर्थ है-जो दुर्गति में गिरते हुए प्राणी को धारण करके रखता और सद्गति में स्थापन करता है। इसे केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भगवान् महावीर ने देवता, मनुष्य आदि की सभा में सत्य अर्थ की प्ररूपणा द्वारा कहा था। उस धर्म को स्वीकार करके भिक्षाशील साधु दूसरे असमर्थ रुग्ण साधु की सेवा-शुश्रूषा करे । किस प्रकार सेवा करे ? यह बताते हैं- "स्वयं ग्लानिरहित होकर तथा यथाशक्ति समाधियुक्त होकर करे ।" आशय यह है कि अगर साधु स्वयं समाधियुक्त होकर अग्लानभाव से रुग्ण साधु की सेवा नहीं करेगा, सेवा करने से जी चराएगा तो भविष्य में कदाचित् वह भी किसी समय रुग्ण, अस्वस्थ या अशक्त हो सकता है, उस समय उसकी सेवा से दूसरे साधु कतरायेंगे, तब उक्त साधु के मन में असमाधिभाव उत्पन्न होगा। अतः रुग्ण साधु को जिस प्रकार समाधि उत्पन्न हो, उस प्रकार से आहारादि लाकर उसे देना स्वस्थ साधु का मुख्य धर्म है । मूल पाठ संखाय पेसलं धम्मं, दिटिठमं परिनिव्वुडे उवसग्गे नियामित्ता, आमोक्खाय परिव्वएज्जाऽसि ।।२१॥ ॥त्ति बेमि॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy