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उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक
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व्याख्या
दूसरों के साथ विवाद के समय मुनि का धर्म पूर्वगाथा में विवाद में हार जाने के बाद अन्यतीथियों की मनोवृत्ति या बाल चेष्टा का निरूपण किया है, साथ ही विवादकारियों के दो विशेषणों द्वारा उनकी वैसी चेष्टा होने के कारण बताकर साधु को उनके साथ विवाद न करने में ही लाभ का निर्देश ध्वनित कर दिया है। किन्तु मान लो, कोई अन्यतीर्थी साधु के साथ विवाद करने आए और वह पूर्वगाथा में बताए हुए ढंग की सी बाल चेष्टाएँ तो न करता हो, किन्तु प्रसन्नहृदय, शान्तमुनि को ऐसा प्रतीत हो कि विवाद में प्रतिपक्षी दल हारता जा रहा है, और आत्मीयता, सद्भावना, स्नेह, मैत्री, सद्गुरु-देव-धर्म के प्रति श्रद्धा आदि गुण बढ़ने के बजाय रोष, द्वेष, ईर्ष्या, प्रतिक्रिया, घृणा, अश्रद्धा आदि दोष ही बढ़ने की सम्भावना है, प्रतिपक्षी के मन में धर्मादि श्रवण या आकर्षण बढ़ने की अपेक्षा लगातार विरोधभाव, दु:ख के कारण भयंकर प्रतिरोध या द्वषभाव ही बढ़ता जा रहा है, तो वह प्रशान्तात्मा साधु क्या करे? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं- 'बहुगुणप्पगप्पाइं कुज्जा..... तं तं समायरे ।' अर्थात्-जिन बातों से पूर्वोक्त बहुत-से गुण निष्पन्न होते हों, उसे बहुगुणप्रकल्प कहते हैं। तृत्तिकार की दृष्टि से जिन अनुष्ठानों के करने से स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष-निराकरण आदि हो, या अपने में पक्षपातरहित मध्यस्थता आदि उत्पन्न हों, ऐसे अनुष्ठानों को बहुगुणप्रकल्प कहते हैं। वह अनुष्ठान प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन आदि हैं। अथवा मध्यस्थ के समान वचन बोलना भी बहुगुणप्रकल्प है। अतः प्रसन्नचित्त साधु किसी के साथ विवाद करते समय या दूसरे समय में आत्मसमाधियुक्त होकर पूर्वोक्त अनुष्ठानों को ही करे। अथवा जिस मध्यस्थवचन के कहने से दूसरे के चित्त में किसी प्रकार का दुःख उत्पन्न न हो, वह-वह कार्य साधु करे । तथा धर्म को श्रवण करने आदि सद्भावों में प्रवृत्त अन्यतीर्थी या दसरा कोई व्यक्ति जिस अनुष्ठान या भाषण से अपना विरोधी, विद्वेषी या प्रतिक्रियावादी न बने, वह अनुष्ठान साधु करे, अथवा वैसा वचन वोले।
निष्कर्ष यह है कि अपनी चित्तसमाधि खोकर, या दूसरे में विद्वष या विरोध उत्पन्न करने वाला कोई भी विवाद न करे ।
मूल पाठ इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥२०॥
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