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सूत्रकृतांग सूत्र
में जकड़ने वाले कर्म-बन्धनों का स्वरूप, उनके कारण, उनके निवारण के उपाय तथा घाती कर्म-बन्धन से मुक्त शुद्ध आत्मा का स्वरूप महावीर स्तुति के रूप में बता दिया है। इस प्रकार सूत्रकृत अर्थात् मूल में अर्थागम रूप से सूत्र कर्ता-उपदेश सूत्र के कर्ता-भगवान् महावीर के अंगभूत (वाणी या उपदेश उनका ही अंग है इस हेतु से) होने के कारण इस के नाम के साथ अंत में 'अंग' शब्द और जोड़ा गया, जिससे इसका नाम 'सूत्रकृतांग' प्रचलित हो गया।
अथवा भगवान् महावीर के अर्थरूप में दिये गये उपदेश को गणधरों द्वारा सूत्ररूप में कृत (किया गया) होने से इसका नाम 'सूत्रकृत' पड़ गया।
यद्यपि भगवान् महावीर द्वारा प्रकाशित ज्ञान को या अर्थागमों को उनके परम मेधावी साक्षात् शिष्य गणधर ग्रहण करके अपनी कुशलबुद्धि से द्वादशांगी के रूप में रचना करते हैं । अतः गणधर तो सभी अंगों को सूत्र रूप में ग्रथित करते हैं, फिर इसी शास्त्र को 'सूत्रकृत' क्यों कहा गया, सभी शास्त्र सूत्रकृत कहे जाने चाहिए ? बात ठीक है, किन्तु इसका नाम सूत्रकृत इसलिये रखा गया कि इस सूत्र की रचना शिष्यों द्वारा प्रस्तुत विशिष्ट जिज्ञासाओं के समाधान-सूत्र के रूप में ही विशेष रूप से की गयी है। इसमें मुख्यतया एक ही प्रश्न –बन्धन के सम्बन्ध में सूत्ररूप में चर्चा है। बन्धन और बंधन-मुक्ति से सम्बन्धित विविध प्रश्नों के उत्तर में भगवान् महावीर के बोधसूत्र बहुत ही सुन्दर ढंग से इस एक ही शास्त्र में प्रस्तुत किये गये हैं, इसलिये इसका 'सूत्रकृतांग' नामकरण समुचित ही है। इसे ही सूत्रकृतांगसूत्र की रचना की पृष्ठभूमि समझना चाहिए । सूत्रकृतांग की सार्थकता
सूत्रकृतांग पर आचार्य श्रीभद्रबाहु स्वामी ने नियुक्ति लिखी है। उन्होंने सूत्रकृतांग के एकार्थक नामों का उल्लेख करते हुए बताया है
'सूयगडं अंगाणं वितियं, तस्सय इमाणि नामाणि ।
सूतगडं सुत्तकडं सुयगडं चेव गोण्णाई ।' -सूत्रकृतांगसूत्र बारह अंगों में दूसरा (अंगशास्त्र) है । इसके एकार्थक नाम ये हैं—सूतकृत, सूत्रकृत और सूचाकृत । ये तीन इसके गुणनिष्पन्न नाम हैं।
तीनों का क्रमशः व्युत्पत्त्यर्थ इस प्रकार है- 'सूतमुत्पन्नमर्थरूपतया तीर्थकृद्भ्यस्ततः कृतं ग्रन्थरचनया गणधरैरिति' तथा 'सूत्रानुसारेण तत्त्वावबोधः क्रियते
१. गुणानुसारी नाम के द्वारा जिसकी उत्पत्ति हुई है, उसे गुणनिष्पन्न नाम कहते हैं,
जैसे इस शास्त्र का गुणानुसारी नाम सूत्रकृत' है।
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