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________________ प्रथम श्रुतस्कन्ध : उपोद्घात सुनाकर कण्ठस्थ करा देते थे । वे शिष्य अपने शिष्यों को कण्ठस्थ कराते थे। इस प्रकार कर्णोपकर्ण-परम्परा से भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट ज्ञान चला । किन्तु एक बात निश्चित है कि भगवान महावीर के उपदेश सूक्ष्मार्थदर्शी गणधरों ने जिस क्रम से उनसे सुने थे, उन्होंने उसी क्रम से नहीं रखे । उन्होंने अर्थरूप में वीतराग प्रभु से उनके उपदेश सुने और अपनी विशिष्ट प्रखर बुद्धि से उन उपदेशों के भावों को व्यवस्थित रूप से वर्गीकरण करके सम्यक रूप से ग्रथित-सम्पादित किया। आवश्यक नियुक्ति (गा० १६२) तथा धवला भाग १ में इस सम्बन्ध में कहा गया है - अत्थं भासइ अरहा, सुत्त गुम्फन्ति गणहरा निउणा । सासणस्स हियट्ठाए, ततो सुत्त पवत्तेइ ॥ अर्थात्-अर्हन्त देव अर्थरूप में उपदेश देते हैं, किन्तु उनके उन विशिष्ट उपदेशों को सूक्ष्मार्थदर्शी गणधरदेव शासन (धर्मसंघ) के हित के लिये निपुणरूप से सूत्ररूप में ग्रथित करते है । इस प्रकार सूत्र की परम्परा प्रचलित हुई। अतः जिज्ञासुओं और मुमुक्षओं की पूर्वोक्त प्रकार की जिज्ञासाओं के समाधान के लिये समग्र सूत्र के कर्ता--अर्थागम के उपदेष्टा-अर्हन्त भगवान् महावीर के उपदेश के भावों को इन्द्रभूति गौतम एवं सुधर्मा स्वामी आदि गणधरों ने तो अक्षुण्ण रखा, ताकि भगवान् महावीर के उपदेशों का सीधा लाभ जिज्ञासुओं को मिल सके, किन्तु उन्होंने उन उपदेशों को सूत्र रूप में ग्रथित-सम्पादित कर दिया। सूत्रकृतांगसूत्र भगवान महावीर के उन्हीं उपदेशों का साररूप में-सूत्र रूप में प्रथित सूत्र है । गणधरों ने इस सूत्र को अपने जिज्ञासु शिष्यों-मुमुक्षुओं की जिज्ञासाओं के अनुरूप इस खूबी से ग्रथित कर दिया है कि भगवान् महावीर ने उन जिज्ञासाओं या प्रश्नों के समाधान के रूप में जो उपदेश दिया (कहा) था, और जैसा आचरण किया था, उन सबका सार इस सूत्रकृतांगसूत्र में आ गया है। यही कारण है कि इस सूत्र के प्रारम्भ में आत्म-स्वरूप का बोध प्राप्त करने का उपदेश 'बुज्झिज्जत्ति' पद से सूचित किया है, और फिर जब शिष्य को जिज्ञासा हुई कि भगवान महावीर ने बन्धन और उसके कारण किन-किन को बताया है तथा उन्हें कैसे जान-परखकर तोड़ा जाए ? तब उसके समाधान के रूप में इस सूत्र के विभिन्न अध्ययनों में बन्धनों के कारणों और उनके निवारण के सम्बन्ध में भगवान महावीर के उपदेश का सार दे दिया है तथा बन्धनों से सर्वथा मुक्त वीतराग परमात्मा---शुद्ध स्वतन्त्र आत्मा का स्वरूप कैसा होता है ? इसे वीरत्थई (वीरस्तुति) नाम के अध्ययन द्वारा सांगोपांग रूप में सूचित कर दिया है। सचमुच सूत्रकृतांगसूत्र में अर्थागम रूप से आद्यसूत्रोपदेष्टा भगवान् महावीर के उपदेश सूत्रों के रूप में आत्मा को विविध भाव बन्धनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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