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सूत्रकृतांग सूत्र
ये और इस प्रकार की आत्मविकास-विषयक जिज्ञासाएँ उत्पन्न होने पर उनका समाधान उन्हीं से हो सकता है, जो आत्मा के सम्बन्ध में सर्वतोमुखी-सर्वांगीण अनुभव प्राप्त कर चुके हों, जिनकी आत्मा अत्यन्त अविकसित अवस्था से क्रमशः उन्नत अवस्था को आरोहण करती हुई पूर्ण विकसित और पूर्ण स्वतंत्र अवस्था को प्राप्त कर चुकी हो, जिनके ज्ञान का सूर्य पूर्णरूप से प्रकाशित हो चुका हो, जो निखिल जगत की, विश्व के समस्त प्राणियों की समस्त गतिविधियों को अपने सर्वज्ञान के प्रकाश में जानते-देखते हों, जिनके राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह आदि समस्त विकार नष्ट हो चुके हों । तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ वीतराग आप्तपुरुष के उपदेश के बिना आत्मविकास की जिज्ञासाओं का समाधान पूर्णरूपेण नहीं हो सकता। लौकिक बातों की जिज्ञासा का समाधान मनुष्य अपने माता-पिता एवं गुरुजन आदि विश्वस्त एवं लौकिक आप्तपुरुषों से प्राप्त कर लेता है, क्योंकि लौकिक बातों के अनुभव में वे ही उससे आगे बढ़े हुए होते हैं, उनको समाज, देश, काल आदि का अनुभव होता है । वैसे ही लोकोत्तर बातों की जिज्ञासा का समाधान लौकिक आप्तपुरुषों से नहीं हो सकता, क्योंकि उन्हें इस विषय का सांगोपांग अनुभव नहीं होता, न उनका ज्ञान सर्वांगपूर्ण या आत्मप्रत्यक्ष होता है । इसलिये लोकोत्तर आप्तपुरुषों से ही आत्मविकास विषयक सांगोपांग अनुभव-ज्ञान प्राप्त हो सकता है । आत्म-विकास के विषय में सांगोपांग अनुभव ज्ञानी आप्तपुरुष अरिहन्तदेव ही हो सकते हैं। क्योंकि सिद्ध परमात्मा तो निरंजन-निराकार, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं अशरीरी हो गए, वे प्रत्यक्ष उपदेश दे नहीं सकते। अरिहन्तदेव सशरीरी वीतराग सर्वज्ञ होने से वे ही प्रत्यक्ष उपदेश दे सकते हैं।
अतः ऐसे जिज्ञासु पुरुष को पूर्वोक्त प्रकार की जिज्ञासाएँ उत्पन्न होना स्वाभाविक है, परन्तु वह चाहता है कि मेरे और अर्हन्त प्रभु के बीच के अन्तर को दूर करने हेतु मुझे मेरे परम आप्तपुरुष वीतराग अर्हन्तदेव से उपदेश मिले. किन्तु वे उपदेष्टा आप्त-पुरुष अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर तो सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो चुके, वे निर्वाण को प्राप्त हो चुके, उनकी उपस्थिति में उनके निकटतम अन्तेवासी गणधरों ने उनसे जो उपदेश सुना था, वह आगम के रूप में उपलब्ध है । किन्तु आगम तो समुद्र के समान बहुत गम्भीर एवं विशाल हैं, उनमें अवगाहन करना हर एक साधक के बस की बात नहीं है । परम-आप्त वीतराग श्री भगवान महावीर ने विभिन्न समय में जो भी उपदेश अपने निकटतम शिष्यों-गणधरों को दिये थे, वे कोई लिखे नहीं गये थे, क्योंकि उस समय तक लिखने की कोई प्रथा नहीं थी और मुद्रणयंत्रों से मुद्रित-प्रकाशित करने की प्रथा तो बहुत बाद में प्रचलित हुई है । गणधरों के युग में भगवान महावीर के उपदेश जो गणधरों ने सुने, उन्हें वे अपने शिष्यों को
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