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________________ ४६४ सूत्रकृतांग सूत्र पुराण, मनुप्रणीत धर्मशास्त्र, सांगोपांग वेद और चिकित्साशास्त्र ये चार ईश्वरीय आज्ञा से सिद्ध हैं, इसलिए तर्कों द्वारा उनका खण्डन नहीं किया जा सकता। तब फिर धर्म परीक्षा के लिए युक्ति, तर्क, अनुमान आदि प्रमाणों की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि बहुसंख्यक लोगों द्वारा स्वीकृत तथा राजा-महाराजा आदि महान लोगों द्वारा मान्य होने से स्पष्ट है कि हमारा धर्म ही श्रेष्ठ है, दूसरा धर्म नहीं। हम जो बात कहते हैं, वह पुराणों आदि से सिद्ध है, फिर हमें अन्य प्रमाणों को प्रस्तुत करने की क्या जरूरत है ? इस प्रकार ऊटपटाँग धृष्टतापूर्वक विवाद करते हुए अन्य तीर्थीजनों को क्या उत्तर देना चाहिए ? इस सम्बन्ध में वृत्तिकार कहते हैं—'ज्ञान आदि सार से रहित बहुत-से लोग कोई बात कहते हों तो उससे कोई मतलब सिद्ध नहीं होता । एरंड की लकड़ियों का ढेर गिनती में चाहे जितनी अधिक हो, फिर भी उसकी कीमत थोड़े-से चन्दन के बराबर भी नहीं होती। इसी तरह ज्ञान-विज्ञान से हीन पुरुषों की संख्या या उनके द्वारा दिये गए अभिमत का मूल्य थोड़े-से भी ज्ञान-विज्ञान वालों के बराबर नहीं हो सकता। जैसे आँख वाला एक पुरुष भी सैकड़ों अंधों से श्रेष्ठ होता है, इसी तरह ज्ञानी पुरुष एक भी हो तो वह उन सैकड़ों अज्ञानियों से श्रेष्ठ होता है । जो सांसारिक जीवों के बन्ध, मोक्ष तथा गति-आगति एवं उनके कारणों को नहीं जानते, वे अज्ञमानव बहुत हों तो भी उनका अभिमत धर्म के विषय में प्रमाण नहीं माना जा सकता।"" । जिनके पास कोई युक्तिप्रमाणपुरःसर उत्तर नहीं होता, वे लोग इधर-उधर बगलें झाँकते हैं या विवाद में न टिकने पर गाली गलौज का सहारा लेते हैं । इसी बात को अगली गाथा में शास्त्रकार कहते हैं मूल पाठ रागदोसाभिभूयप्पा, मिच्छत्तण अभिदुता। आउस्से सरणं जंति, टंकणा इव पव्वयं ॥१८॥ १. एरंडकट्ठासी जहा य गोसीस चंदनपलस्स । मोल्ले न होज्ज सरिसो, कित्तियमेत्तो गणिज्जंतो ॥१॥ तह वि गणणातिरेगो जह रासी सो न चंदनसरिच्छो । तह निविण्णाणमहाजणोवि सोज्झे विसंवयति ॥२॥ एको सचक्खुगो जह अंधलयाणं सरहिं बहुएहि । होइ वरं दट्ठन्वो गहु ते बहुगा अपेच्छंता ॥३॥ एवं बहुगावि मूढा ण पमाणं जे गई ण जाणंति । संसारगमणगुबिलं पिउणस्स य बंधमोक्खस्स ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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