SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 510
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक ४६५ संस्कृत छाया रागद्वेषाभिभूतात्मानः मिथ्यात्वेनाभिद्र ताः। आक्रोशान् शरणं यान्ति, टंकणा इव पर्वतम् ॥१८॥ अन्वयार्थ (रागदोसाभिभूयप्पा) जिनकी आत्मा राग और द्वेष से दबी हुई है तथा (मिच्छत्ते ण अभिददुता) जो व्यक्ति मिथ्यात्व से घिरे हुए हैं, वे अन्यतीर्थी शास्त्रार्थ में हार जाने पर (आउस्से) गालियों, आक्षेपों आदि का (सरणं जंति) सहारा लेते हैं, (टंकणा पव्वयं इव) जैसे टंकण जाति के पर्वतनिवासी म्लेच्छ युद्ध में हार जाने पर पहाड़ का आश्रय लेते हैं। __भावार्थ राग और द्वष से जिनका हृदय दबा हुआ है तथा जो मिथ्यात्व से भरे हुए हैं, वे अन्यतीर्थी जब शास्त्रार्थ में परास्त हो जाते हैं, तब गालीगलौज, आक्षेप और मार-पीट आदि का सहारा लेते हैं, जैसे पहाड़ पर रहने वाले टंकण जाति के म्लेच्छ युद्ध में हार जाने पर पहाड़ का ही आश्रय लेते हैं। व्याख्या विवाद में हार जाने पर अन्यतीथियों द्वारा आक्रोश का आश्रय पूर्वगाथा (नं० ११) में शास्त्रकार ने अन्यतीथियों के युक्तिविरुद्ध आक्षेपों का नम्रतापूर्वक यथार्थ उत्तर देने का परामर्श दिया था, किन्तु जब विद्वान साधु यह देखे कि प्रतिपक्षी विवाद में नहीं टिक रहा है, और अपनी पराजय की प्रतिक्रियास्वरूप साधुओं पर आक्षेप, गाली-गलौज या मारपीट आदि पर उतर आया है तब वह क्या करे ? इसे बताने के लिए शास्त्रकार यह गाथा प्रस्तुत करते हैं - 'रागदोसाभिभूयप्पा · · · टकणा इव पव्वयं ।' शास्त्रकार ने दो विशेषण उक्त प्रतिपक्षियों के लिए प्रयुक्त करके यह संकेत कर दिया है कि धीर शान्तात्मा मुनि उनको इन अध्यात्म रोगों के शिकार समझकर उन पर तरस खाए, मौन रहे; उनसे विवाद में न उलझे । यही समझे कि इनका हृदय राग-द्वेष आदि विकारों से अत्यन्त दबा हुआ है, ये मिथ्यात्वमोह (विपरीत बोध के कारण, अतत्त्व-- अयथार्थ अध्यवसायों) से परिपूर्ण हैं। उत्तम युक्तियों द्वारा विवाद करने में जब ऐसे लोग असमर्थ हो जाते हैं, तब उनका स्वभाव ऐसा चिड़चिड़ा हो जाता है कि बे वात-बात में गाली-गलौज, असभ्य शब्दों, डंडों, मुक्कों आदि उद्दण्ड व्यवहार का प्रयोग करने पर उतारू हो जाते हैं। इस बात को दृष्टान्त द्वारा शास्त्रकार समझाते हैं—'टंकणा इव पव्वयं ।' पहाड़ में रहने वाली म्लेच्छों की एक जाति विशेष 'टंकण' कहलाती है। दुर्जेय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy