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________________ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन - तृतीय उद्देशक ४६३ न करें, ऐसी दोषजनक तुच्छ देशना सर्वज्ञ की नहीं हो सकती । अतः रोगी साधु की वैयावृत् साधु को नहीं करनी चाहिए इत्यादि अन्यतीर्थियों का आक्षेप शास्त्रविरुद्ध, युक्तिविरुद्ध एवं अयथार्थ है । वस्तु स्थिति यह है कि आप लोग भी अपने रोगी साधु की वैयावृत्य करने के लिए गृहस्थ को प्रेरणा देते हैं, तथा इस कार्य का अनुमोदन करके रोगी साधु का उपकार करना अंगीकार भी करते हैं, इसलिए आप रोगी साधु का उपकार भी करते हैं और इस कार्य से द्वेष भी करते हैं । यह तो ' वदतो व्याघात' जैसा है । मूल पाठ सव्वाहि अणुजुतीहि अचयंता जवित्तए I ततो वायं णिराकिच्चा, ते भुज्जोवि पगभिया ॥ १७ ॥ संस्कृत छाया सर्वाभिरनुयुक्तिभिरशक्नुवन्तो यापयितुम् । ततो वादं निराकृत्य ते भूयोऽपि प्रगल्भताः ॥ १७ ॥ अन्वयार्थ ( सव्वाहिं अणुजुतीहि ) समस्त युक्तियों के द्वारा (जवित्तए अचयंता) अपने पक्ष की सिद्धि न कर सकते हुए (ते) वे अन्यतीर्थी (वायं णिराकिच्चा ) वाद को छोड़कर (भुज्जोfa पगब्भिया) पुनः दूसरी तरह से अपने पक्ष की स्थापना करने की धृष्टता करते हैं । भावार्थ समस्त युक्तियों के द्वारा अन्यतीर्थी जब अपने पक्ष की स्थापना ( सिद्धि) करने में असमर्थ रहते हैं, तब वादविवाद को छोड़कर फिर वे दूसरी तरह से स्वपक्ष की स्थापना करने की धृष्टता करते हैं । व्याख्या स्वपक्ष सिद्धि में परास्त अन्यतीर्थो पुनः उसी धृष्टता पर आजीवक (गोशालक) मतावलम्बी आदि अन्य मतानुयायी जब अपनी बात को सिद्ध करने के लिए तदनुसार समस्त हेतु दृष्टान्त, प्रमाण आदि युक्तियों से एड़ी से लगाकर चोटी तक जोर लगा लिया, फिर भी वे अपनी बात को सिद्ध करने में असमर्थ रहे तब वे सम्यक् हेतु और दृष्टान्तों से ओतप्रोत युक्ति -प्रमाण पुरःसर वाद का मार्ग त्यागकर पुन: दूसरे दुर्बल तरीके से अपने पक्ष की सिद्धि करने की करते हैं । जैसा कि वे कहते हैं Jain Education International पुराणं मानवो धर्म:, सांगो वेदश्चिकित्सितम् । आज्ञा सिद्धानि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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