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________________ ४६२ सूत्रकृतांग सूत्र संस्कृत छाया धर्मप्रज्ञापना या सा सारम्भाणां विशोधिका। न त्वेताभि ष्टिभिः पूर्वमासीत् प्रकल्पितम् ।।१६।। अन्वयार्थ (जा धम्मपन्नवणा) 'साधुओं को दान आदि देकर उपकार करना चाहिए, यह जो धर्मदेशना है, (सा) वह (सारंभाण विसोहिआ) गृहस्थों को विशुद्ध करने वाली है, साधुओं को नहीं।' (एयाहि दिट्ठीहिं) इन दृष्टियों से (पुर्व) पहले (ण उ पगप्पि आसि) यह देशना नहीं की गई थी। भावार्थ "साधुओं को दान आदि देकर उपकार करना चाहिए, यह जो धर्मदेशना है, वह गृहस्थों को ही पवित्र करने वाली है, साधुओं को नहीं।" इस अभिप्राय से पहले यह धर्म की देशना नहीं दी गई थी। व्याख्या सर्वज्ञप्रदत्त धर्मदेशना का विपरीत अर्थ इस गाथा में सर्वज्ञप्ररूपित धर्मदेशना का जो अन्यतीर्थियों द्वारा उलटा अर्थ लगाया जाता है, उसका खण्डन किया गया है- 'धम्मपन्नवणा"""विसोहिआ'। अर्थात् --यह जो धर्मदेशना है कि साधुओं को दान देकर उपकार करना चाहिए, वह गृहस्थों की ही शुद्धि करने वाली है, साधुओं की नहीं, क्योंकि साधु तो अपने तप-संयम का आचरण करके ही शुद्ध होते हैं । अतः दान देने का साधु को अधिकार नहीं है। यदि साधु भी गृहस्थों को आहारादि देने लगेंगे तो उन्हें सदोष आहार स्वीकार करना पड़ेगा, संयम में भी बाधा उपस्थित होगी। इस कारण साधु गृहस्थों को दान नहीं देते। यदि वे दान देने लगंगे तो याचकों की भीड़ लग जाएगी। सबको दान देने से साधु की भिक्षा ही दुर्लभ हो जाएगी। वह अपनी संयममात्रा के लिए याचना करके आहार लाता है, उसमें से दान देने का अधिकार नहीं । देता है तो मृषावाद एवं अदत्तादान का दोष लगता है । सर्वज्ञ द्वारा प्रदत्त धर्मदेशना के गलत अर्थ लगाये जाने का खण्डन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-', उ एयाहि पग्गप्पियं' । अर्थात-रोगादि अवस्था में साधु को आहारादि लाकर देने का, साधु के प्रति उपकार गृहस्थ को ही करना चाहिए, साधुओं को परस्पर ऐसा नहीं करना चाहिए, इस प्रकार की आपकी (अन्यतीथियों की) विपरीत दृष्टि के अनुसार पूर्वकाल में सर्वज्ञों ने धर्मदेशना नहीं दी थी। क्योंकि सर्वज्ञ पुरुष इस प्रकार के तुच्छ या विपरीत अर्थ की प्ररूपणा नहीं करते। रोगी आदि साधु की एषणादि के दोषों में उपयोग न रखने वाले असंयमी पुरुष ही वैयावृत्यसेवा करें मगर उपयोग रखने वाले संयमी साधु स्वयं रोगी आदि साधु की वैयावृत्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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