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________________ उपसर्गपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन-तृतीय उद्देशक ४५४ व्याख्या आक्षेपकर्ताओं को युक्तिसंगत उत्तर षटकायिक जीवों का उपमर्दन करके आप लोगों के निमित्त से जो आहार तैयार किया जाता है उसके सेवन करने से, हठपूर्वक झूठी बात को पूर्वाग्रहवश पकड़ने से, मिथ्यादष्टित्व के स्वीकार से एवं सुविहित साधुओं की निन्दा करने से आप लोग तीव्रकषाय या तीव्रबन्धन के अभिताप से लिप्त हैं, सुविवेक से हीन हैं, क्योंकि आप भिक्षापात्र न रखकर दूसरे के घरों में भोजन करने के कारण उद्दिष्ट आहार का सेवन करते हैं एवं उत्तम साधुओं के प्रति द्वष करने के कारण शुभ अध्यवसाय से रहित हैं। ____ अन्यतीथियों के दोष बतलाने हेतु शास्त्रकार कहते हैं— "हमारी मानो तो हम एक नैतिक सिद्धान्त बताते हैं कि घाव को अधिक खुजलाना अच्छा नहीं होता, इसलिए हम लोग आपके दोषों को अधिक कुरेदना अच्छा नहीं समझते । आप लोग बाह्यपरिग्रह रहित अपरिग्रही कहलाते हुए भी षटकायिक जीवों की रक्षा के साधन रूप जो भिक्षापात्र आदि हैं, उन्हें भी छोड़ बैठे । उसके कारण आपको अपने निमित्त कच्चे पानी एवं वनस्पति आदि का आरम्भ करके बनाया हुआ अशुद्ध, औद्देशिक आदि दोषों से युक्त आहार सेवन करना पड़ता है। अतः द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव की उपेक्षा करके घाव को अत्यन्त खुजलाने के समान संयम के उपकरणों को त्यागकर गृहस्थों को बार-बार अपने लिए आहार बनाने के लिए परेशान करना श्रेयस्कर नहीं है। और न ही घावों को बार-बार कुरेदने के समान मिथ्या-आक्षेपात्मक प्रश्नों को जिनसे कि आप अनभिज्ञ हैं, बारबार छेड़ना अच्छा है। इससे राग-द्वेषवृद्धिरूप दोष उत्पन्न होने के सिवाय और कुछ अच्छाई नहीं हो सकती। मूल पाठ तत्तण अणुसिट्ठा ते, अपडिन्नण जाणया । ण एस णियए मग्गे, असमिक्खा वती किती ॥१४॥ संस्कृत छाया तत्त्वेनानुशिष्टास्तेऽप्रतिज्ञन जानता । न एष नियतो मार्गोऽसमीक्ष्य वाक्कृतिः ॥१४॥ अन्वयार्थ (अपडिन्न ण) जो प्रतिकूल ज्ञाता नहीं है अथवा जिसे मिथ्या अर्थ बताने की प्रतिज्ञा नहीं है, या रागद्वषरहित अप्रतिज्ञ एवं (जाणया) उपादेय और हेय का ज्ञाता साधु (ते) उन आक्षेपकर्ता अन्यदर्शनियों को (तत्तेण अणुसिठ्ठा) सत्य (वास्तविक) बात की शिक्षा देता है कि (एस मग्गे) आप लोगों के द्वारा स्वीकृत यह मार्ग (पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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